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________________ १९४ नियमसार-प्राभृतम् भयमैथुनपरिग्रहाभिलाषा संज्ञा । चारित्रमाहोदयस्यान्तर्गतो तिनोकषायोदयजनितभावो रागः । अरतिनोकषायोदयजनितभावो द्वेषः, शत्रून् प्रति वैरपरिणामो धा द्वषः । आदिशब्देन असंख्पातलोकप्रमिला ये केचित् अशुभभावास्ते सर्वेऽपि गृह्यन्ते । एतान् कालुष्याघशुभभावान् यस्त्यजति, तस्य मुनेर्व्यवहारनयाभिप्रायेण मनोगुप्तिर्गीयते । ननु रागशब्देन निजभक्त्यादिप्रशस्तरागोऽपि गृह्यते अत्र तस्यापि परिहारो भवेत् ? नैतत् अत्र अशुभभावानां कथनं दृश्यते, अतः कारणात् व्यवहारमनोगुप्ती प्रशस्तगगरूपेण पञ्चमुरुषु अनुरागो न त्यज्यते, अन्यथा षडावश्यकक्रियाणामभावो भविष्यति। किन्तु नैतयुक्तम्, अस्मिन्नेवाधिकारे श्रीकुन्दकुन्ददेवाः पञ्चगुरूणां भक्त्याविप्रशस्तरागं कर्तुमुपदेश्यन्ति । ततोऽत्र स्त्रीपुत्रधनगृहादिसंबंधि-अप्रशस्तरागस्यैव परिहारः परिगह्यते । इयं गुप्तिः प्रमत्ताप्रमत्तमुनिष्वेव परिपूर्णा भवति इति ज्ञात्वा निरन्तरमस्या भावना कर्तव्या मुमुक्षुभिः ॥६६॥ से असंयतभाव या ममत्व भाव का होना मोह है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इनकी अभिलाषा का नाम संज्ञा है। चारित्रमोह के अंतर्गत रति नोकषाय के उदय से होने वाला भाव राग है। अरतिनामक नोकषाय के उदय से होने वाला भाव द्वेष है, अथवा शत्रुओं के प्रति बैर का भाव द्वेष है। आदि शब्द से असंख्यात प्रमाण जो कोई भी अशुभ भाव हैं वे सभी ग्रहण किये जाते हैं। जो इन कालुष्य आदि भावों को छोड़ देता है, उस मुनि के व्यवहारनय के अभिप्राय से मनोगुप्ति होती है । . शंका-राग शब्द से जिनभक्ति आदि प्रशस्त राग भी लिए जाते हैं, यहाँ पर उनका भी परिहार हो जावेगा? । समाधान-~--ऐसा नहीं है, क्योंकि यहाँ पर अशुभ भावों के परिहार का कथन है। इस कारण इस व्यवहार मनोगुप्ति में पंचगुरुओं के प्रति होने वाले अनुरागरूप प्रशस्त राग को नहीं छुड़ाया गया है। अन्यथा छह आवश्यक क्रियाओं का अभाव हो जायेगा, किंतु ऐसी बात युक्त नहीं है 1 आगे इसी अधिकार में श्री कुन्दकुन्ददेव पंचपरमगुरुओं की भक्ति आदि प्रशस्त राग को करने का उपदेश देंगे। इसलिए यहाँ स्त्री पुत्र धन घर आदि संबंधी अप्रशस्त राग का ही परिहार ग्रहण किया गया है। यह गुप्ति प्रमत्त और अप्रमत मुनियों में हो परिपूर्ण होती है, ऐसा जानकर मुमुक्षुओं को निरंतर इस गुप्ति की भावना करते रहना चाहिए ।।६६।।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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