SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार- प्राभूतम् "अरहंतणमोकार भाषेण य जो करेवि पथदमदी । सो सच्चदुक्खमोक्खं पायदि अचिरेण कालेन ॥५॥" यः प्रयत्नमतिर्मुनिर्भाविन अहंतो नमस्कार करोति, सोऽचिरेण कालेन सर्वदुःखात् मोक्षं प्राप्नोति । इति विज्ञाय सर्वकर्मक्षयार्थमहेत्परमेष्ठिनो भक्ति कुर्वता सत्ता शुद्धनयेन अर्हत्स्वरूपोऽहम् इति भावयता च तावत् स आश्रयणीयो यावत् तत्स्वरूपो न परिणमेत स्वस्थात्मा इति तात्पर्यार्थः ॥ ७१ ॥ २११ अश्रूना सिद्धत्वेन साध्यस्य नात्मनः प्रतिच्छंदस्थानीयानां सिद्धानां स्वरूपं रूपयन्ति सुरथ:कम्बंधा असागुणसमणिया परमा । starfar frost सिद्धा ते एरिसा होंति ॥ ७२ ॥ ) ते सिद्धा एरिसा होंति - ते सिद्धाः ईदृशाः भवन्ति । ते कीदृशाः ? णदृट्ठकम्मबंधा-नष्टाष्टकर्मबंधाः व्युपरत क्रियानिवृत्तिनामपरमशुक्लध्यान बलेन नष्टा भस्मीभूताः अष्टकर्मणां बंधा : संश्लेषसंबंधा येभ्यस्ते कर्ममलकलंकविनिर्मुक्ताः । पुनश्च ते कथंभूताः ? अट्टमहागुणसमणिया - अष्टमहागुणसमन्विताः, अष्टकर्मणां क्षयायाविर्भूताः सम्यक्त्वादिमहागुणास्तैः समन्विताः । उक्तं च जो प्रयत्नमति होकर भावपूर्वक अर्हतदेव को नमस्कार करते हैं, वे बहुत थोड़े ही काल में सर्व दुःखों से छुटकारा पा लेते हैं। ऐसा जानकर सर्व कर्मों का क्षय करने के लिए अहंत भगवान् की भक्ति करते हुए और शुद्धनय से "मैं अर्हत स्वरूप हूँ" ऐसी भावना करते हुए तब तक उनका आश्रय लेना चाहिये, जब तक कि अपनी आत्मा अर्हत स्वरूप न परिणत हो जावे । यहाँ यह तात्पर्य हुआ ॥ ७१ ॥ अब आचार्यदेव सिद्धरूप से साध्य जो अपनी आत्मा है, उसके सदृश ऐसे सिद्धों का स्वरूप जहते हैं अन्वयार्थ (जठट्ठकम्मबंधा) जिन्होंने आठ कर्मों के बंध का नाश कर दिया है, (अट्ठमहागुणसमण्णिया) जो आठ महागुणों से समन्वित हैं । (परमा लोयगठिदा णिच्चा) परम हैं, लोकाग्र पर स्थित हैं और नित्य हैं, (एरिसा ते सिद्धा होंति ) ऐसे वे सिद्ध भगवान् होते हैं ॥७२॥ टीका - जिन्होंने व्युपरत क्रियानिवृत्ति नाम के परमशुक्ल ध्यान के बल से आठ कर्मों के संश्लेष संबंध को भस्मसात् कर दिया है, ऐसे वे कर्ममल कलंक से रहित सिद्ध भगवान् आठ कर्मों के क्षय से प्रकट हुए सम्यक्त्व आदि आठ महागुणों से सहित हैं । उन गुणों के नाम कहते हैं
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy