SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार-प्राभृतम् "सम्मतणाणदसणवीरियसुहमं तहेव अवगहणं । अगुरुलड्डमवाबाहं अगुणा होसि सिद्धाणं ।। तथाहि मोहनीय कर्मणः सर्वथा प्रलयात् सम्यक्त्वम्, ज्ञानावरणस्य सर्वतः संक्षयात् ज्ञानम्, दर्शनावरणस्य कृत्स्नक्षयात् वर्शनम्, अन्तरायस्य पूर्णतया निरासात् वीर्यम, नामकर्मणः सम्पूर्णविलयात सूक्ष्मम्, आयुकर्मविनाशात् अवगाहनत्वम, गोत्रकर्मणः विघातात अगुरुलघुत्वम्, वेदनीयस्य अभावात् अव्याबाधं चेति अष्टगुणाः सिद्धानां भवन्ति प्रधानत्वेन । यतः अनंतानंतगुणा मीयन्ते आर्षेषु तेषाम् इति । पुनश्च ते किविशिष्टाः ? परमा-परमाः सर्वोत्कृष्टाः त्रिभुवनमध्ये अथवा 'परा' उत्कृष्टा 'मा लक्ष्मीः अनन्तज्ञानदर्शनाधनन्तगुणस्वरूपा येषां ते परमाः। यदि एतादृशाः सिद्धाः सन्ति तर्हि ते क्वासते ? लोयग्गठिदा-लोकानस्थिता: लोकाकाशस्य अग्रे शिखरे तनुवातवलयस्थाने स्थिताः सन्ति । कि तेस्मिन् संसारे कदाचित् अवतरिध्यन्ति ? न; कस्मात् ? णिच्चा-नित्याः शाश्वताः तत्रत्यात् प्रच्यवनाभावात् । सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्याबाध ये आठ गुण सिद्धों के होते हैं । उसी का खुलासा करते हैं-- मोहनीय कर्म के सर्वथा प्रलय हो जाने से सम्यक्त्व गुण प्रकट हो जाता है । ज्ञानावरण के सर्वथा क्षय हो जाने से ज्ञान, दर्शनावरण के संपूर्ण नाश से दर्शन, अन्तराय के पूर्णतया विनाश से बीर्य, नाम-कर्म के संपूर्ण विलय से सूक्ष्म, आयुकर्म के विनाश से अवगाहनत्व, गोत्र कर्म के विघात से अगुरुलघुत्व और वेदनीय के अभाव से अव्याबाध--सिद्धों में ये आठ गुण प्रधानरूप से माने गये हैं। क्योंकि आर्ष ग्रन्थों में तो इनके अनंतानंत गण कहे गये हैं। पुनः वे सिद्ध कैसे हैं? परम-तीनों भुवन में जो सर्वोत्कृष्ट हैं अथवा जिनके परा-उत्कृष्ट, मालक्ष्मी-अनंतज्ञान दर्शन आदि अनंतगुण स्वरूप विद्यमान है, वे परम हैं। यदि ऐसे सिद्ध भगवान हैं तो वे कहाँ विराजमान हैं ? लोकाकाश के अग्रभाग-शिखर पर, अर्थात् तनुवातवलय में विराजमान हैं। पुनः क्या वे कभी इस संसार में कदाचित् अवतार लेंगे ? नहीं, क्यों ?
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy