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________________ १७० नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च श्रीनेमिचंद्रसिद्धांतचक्रवतिदेवः असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्तो य जाण चारित्तं । पाल्पमिदेखि पबहारणमा जिणभणिय' ॥४५॥ अशुभात् पापात् विनिवृत्तिः शुभे शुभोपयोगे प्रवृत्तिश्च यद् भवति, तसेच व्यवहारनयापेक्षया जिनकथितं पश्चमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिरूपं चारित्रं भवतीति । सरागचारित्रम्, अपहतसंयमः, अपवादमार्गः, शुभोपयोगः, व्यवहारचारित्रम, भेदसंयमा-इति नामान्तराणि । अस्यैव सरागचारित्रस्यैकदेशावयवभूतं देशचारित्रं तत्पश्चमगुणस्थानवर्तिनः श्रावकस्य जायते । यावत् व्यवहारनयस्य चारित्रं वर्तते तावद् व्यवहारनयस्य तपश्चरणमनशनाविद्वादशविधं भवति । यतः प्रभृति निश्चयनयाधीनं चारित्रं प्रवर्तते ततःप्रभृति निश्चयनयस्य तपश्चरणं जायते । व्यवहारचारित्रेण साध्यं निश्चयचारित्रं रत्नत्रयस्यैकाग्यपरिणतिरूपम् । मुद्रा का धारी योगी प्रथम ही पापक्रिया के त्याग रूप चारित्र का आचरण करता है, वह व्यवहारनय का चारित्र कहलाता है । श्रीनेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तीदेव ने कहा है अशुभ से निवृत्त होकर शुभ में प्रवृत्ति करना यह चारित्र है, ऐसा जानो। वह व्रत, समिति, गुप्तिरूप है और व्यवहार नय से कहा गया है, ऐसा जिनेन्द्रदेव का कथन है। अशुभ-पाप से छूटने से और शुभोपयोग में प्रवृत्ति रूप जो होता है, वही व्यवहारनय की अपेक्षा से जिनदेव कथित पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्तिरूप चारित्र होता है। सराग चारित्र, अपहृत संयम, अपवाद मार्ग, शुभोपयोग, व्यवहारचारित्र और भेदसंयम ये सब पर्यायवाची नाम हैं। इसी सरागचारित्र का एकदेश अवयवरूप देशचारित्र होता है। वह पंच म गुणस्थानवों श्रावक को होता है ! जब तक व्यवहारनय के आश्रित चारित्र होता है, तब तक ब्यबहारनय तपश्चरण अनशन अवमौदर्य आदि बारह प्रकार का होता है और जब से लेकर निश्चयनय के आधीन चारित्र होता है, तभी से निश्चयनय का तपश्चरण होता है । यह निश्चयचारित्र रत्नत्रय की एकाग्र परिणतिरूप है, जो कि व्यवहार चारित्र के द्वारा साध्य होता है। १. द्रव्यसंग्रह।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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