________________
नियमसार-प्राभृतम्
१६९ भो भव्य ! त्वया श्रूयताम; सम्यकचारित्रमपि मोक्षस्य कारणं वर्तते । अत एव अहं व्यवहारनयेन निश्चयनयेम च सम्यक्चारित्रस्य प्ररूपणां करिष्यामीति प्रतिज्ञायते श्रीमद्भगवतकुन्दकुन्ददेवैः इति । ततो निश्चीयते निश्चयचारित्रवत व्यवहारचारित्रमपि उपादेयमेव, न च हेयम्, यतस्तस्य व्यवहारचारित्रस्य निश्चयचारित्रहेतुत्वमिति शात्वा निश्चयरत्नत्रयस्योपलब्धये व्यवहारचारित्रं प्रारंभावस्थायां परमादरेण परिगृहीतव्यम् ॥५४॥
अधुना प्रकृतमुपसंहर्तुकामा व्यवहारनयः कुतः पर्यंत प्रयोजनवान् ? इति सूचयन्त्याचार्यदेवाःववहारणयचरित्ते, ववहारणयस्स होदि तवचरणं ॥ णिच्छयणयचारित्ते, तवचरणं होदि णिच्छयदो ॥५५॥
ववहारणयचरिते ववहारणयस्स तवचरणं होदि-व्यवहारनयचारित्रे व्यवहारनपस्य तपश्चरणं भवति । णिच्छयणयचारित्ते णिच्छ्यदो तवचरणं होदिनिश्चयनयचारित्रे निश्चयतः तपश्चरणं भवतीति ।
तधया-~~-अर्हन्मुद्राप्ररो योगी प्रथमं यत् पापक्रियानिवृत्तिरूपं चारित्रमाचरति तत् व्यवहारनयस्य चारित्रं कथ्यते ।
कारण हैं, हे भव्यों! तुम सुनो, चारित्र भी मोक्ष का कारण है। इसलिये मैं श्री. कुन्दकुन्दाचार्य व्यवहारनय से और निश्चयनय से सम्यक्चारित्र की प्ररूपणा करूँगा। यहाँ आचार्यदेव ने ऐसी प्रतिज्ञा की है। इससे यह निश्चय होता है कि निश्चयचारित्र के समान व्यवहारचारित्र भी उपादेय है न कि हेय, क्योंकि वह निश्चयचारित्र का हेतु है। ऐसा जानकर निश्चयचारित्र की प्राप्ति के लिये प्रारंभ अवस्था में व्यवहारचारित्र को परम आदर से ग्रहण करना चाहिये ॥५४॥
अधुना प्रकृत का उपसंहार करने की इच्छा रखते हुए व्यबहारनय कहाँ तक प्रयोजनीभूत है ? इस बात को बतलाते हुए आचार्यदेव कहते हैं
अन्वयार्थ----(ववहारणयचरित्ते) व्यवहारनय के चारित्र में (ववहारणयस्स तवचरण होदि) व्यवहारनय का तपश्चरण होता है । (णिच्छयणयचारित्ते) निश्चयनय के चारित्र में (णिन्छयदो तवचरणं होदि) निश्चयनय का तपश्चरण होता है ।।५५॥
टोका-व्यवहारनय से जो चारित्र है, उसमें व्यवहार तपश्चरण होता है। निश्चयनय के चारित्र में निश्चय तपश्चरण होता है । उसी को कहते हैं-अहंत
२२