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नियमसार-प्राभूतम् दरेण सततं कर्तव्यम् । तथा च मुनीनां दर्शनं चंपापावादितीर्थवदनादिकमपि विषातव्यम, यतोऽमूनि सण्यिपि सम्यक्त्वोत्पत्तिद्धिरक्षानिमित्तानि प्रोक्तान्याषंग्रन्थे इति ॥५३॥
मार्गस्यावमवद्वयस्य व्याख्यानं विधाय तृतीयं व्याख्यातुं प्रतिजानते सूरयःसम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि मोवखस्स होदि सुण चरणं । ववहारणिच्छएण दु तम्हा चरणं पवक्खामि ॥५४॥
सम्मत्तं सण्णाणं मोक्खस्स विज्जदि-सम्यक्त्वं संज्ञानं मोक्षस्प विद्यते कारणम् । सुण चरणं होदि-शृणु भोः भव्य ! त्वम् आकर्णय चरणं भवति चारित्रमपि मोक्षस्य हेतुर्भवति । तम्हा-तस्मात् कारणात् । ववहारणिच्छएण दु चरणं पवक्वामि-व्यवहारनिश्चयाभ्यां तु चरणं चारित्र प्रवक्ष्यामि, निरूपयामि ।।
इदमत्र तात्पर्यम्---सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानम इमे द्वे मोक्षस्य कारणे स्तः । अनंतानंत संसार की परंपरा को छेद करने में कारण जिनबिंब का दर्शन परम आदर से सतत करते रहना चाहिये । उसी प्रकार मुनियों के दर्शन, चंपापुरी पावापुरी, सम्मेदशिखर आदि तीर्थों की वंदना आदि भी करते रहना चाहिये । क्योंकि ये सब कारण भी आर्ष ग्रन्थ में सम्यक्त्व की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के निमित्त कहे गये हैं ॥५३॥
अब आचार्यवर्य मोक्षमार्ग के दो अवयवों का व्याख्यान करके तीसरे को कहने की प्रतिज्ञा करते हैं
अन्वयार्थ--(मोक्खस्स सम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि) मोक्ष के कारण सम्यक्त्व और संज्ञान हैं । (चरणं होदि सुण) चारित्र भी होता है, उसे सुनो । (दु तम्हा यवहारणिच्छएण चरणं पबक्खामि) इसलिये व्यवहार निश्चय की अपेक्षा से चारित्र को कहूंगा ॥५४॥
टोका-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये मोक्ष के कारण हैं । हे भव्य ! सुनो, चारित्र भी मोक्ष का हेतु है। इसलिये व्यवहार और निश्चय से मैं चारित्र को कहूँगा।
यहाँ तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये दो मोक्ष के लिये