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________________ नियमसार-प्राभृतम् १६७ कiस्थितिका काललन्धिः । उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति । व हि भवति ? अन्तःकोटी कोटी सागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात्कर्मसु च ततः संख्थेयसागरोपम सहस्रानायामन्तःकोटीकोटीसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्रयोग्यो भवति । अपरा काललब्धिः भावापेक्षया । भव्यः पंचेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तकः सर्वविशुद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति । 'आदि-शब्देन जातिस्मरणादिः परिगृह्यते ।" अन्यच्च सम्यक्त्वस्योपलब्ध्यार्थ पंच लब्धयो वर्णिताः क्षयोपशमलब्धिः, विशुद्धिलब्धि:, वेशनालब्धि:, प्रायोग्यलब्धिः, करणलब्धिश्च । एतासु चतस्रो लब्धयः सामान्या भव्येषु अभव्येष्वपि जायन्ते, किन्तु करणलब्धिर्भव्येष्वेव भवति । इदमत्र तात्पर्यम् - - बहिरंगान्तरं गकारणोपलब्धौ सत्यामेव सम्यक्त्वमुत्पद्यते, न चैकतरेण । एवं ज्ञात्वा अनन्तानंतसंसार संततिच्छेदकारणं जिनबिंबदर्शनं परमा यह एक काललब्धि हुई । दूसरी कालब्धि कर्मस्थितिक है। जब कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति रहती है या जघन्य स्थिति रहती हैं, तब प्रथम सम्यक्त्व का लाभ नहीं हो सकता है । शंका-तब किस स्थिति में होता है ? समाधान -- जब कर्म अंतः कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति में बंध रहे हैं और विशुद्ध परिणामों के वंश से संख्यात हजार सागर क्रम अंतः कोटाकोटो सागरोपम की स्थिति सत्ता में कर देने पर प्रथम सम्यक्त्व की योग्यता आती है । , अन्य काललब्धि भव की अपेक्षा से हैं--भव्य, पंचेन्द्रिय, संज्ञी पर्याप्तक, सर्वविशुद्ध परिणाम वाला होता हुआ प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है । आदि शब्द से जातिस्मरण आदि भी लिये जाते हैं । अन्य ग्रन्थों में सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिये पाँच लब्धियाँ कही गई हैं । क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि । इनमें से चार लब्धियाँ भव्य और अभव्य दोनों में सामान्यतया होती हैं, किन्तु एक करणलब्धि भव्यों में ही होती है । यहाँ तात्पर्य यह निकलता है कि बहिरंग और अंतरंग कारणों की उपलब्धि होने पर ही सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, न कि एक कारण से। ऐसा जानकर १. सर्वार्थसिद्धि, अ० २, सूत्र ३ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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