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________________ नियमसार-प्राभृतम् तहि बाह्यकारणे लब्धे सति सर्वेषां जीवानां सम्यक्श्वेन भाव्यं, परन्तु नैतत् दृश्यते ? सत्यमुक्तं भवता, परं बाह्यकारणे प्राप्ते सति कार्यसिद्धिः जायते न वा जायते, किन्तु बाह्यकारणाभावे तु नियमेन न जायते । यथा कुम्भकारचक्रचीवरदण्डादिबाह्यकारणाभावे घटोत्पत्तिर्न जायते किन्तु एतत्कारणे लब्धे सति जायते न वा जायते । अतो निश्चितमेतत् बाह्यकारणं न निरर्थकम् । १६६ अंतरंगनिमित्तं दर्शन मोहस्य उपशमादिः । स तु काललब्ध्यादिप्राप्तौ सति एव भवति नान्यथा । उक्तं च श्रीपूज्यपादस्वामिभिः 1 "सप्तानां प्रकृतीनामुपशमादौपशमिकं सम्यक्त्वम् । अनादिमिथ्यादृष्टेर्भव्यस्य कर्मोक्यापादितकालुष्ये सति कुतस्तदुपशमः ? फाललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् । तत्र काललब्धिस्तावत्-आत्मा भय्यः कालेऽधपुद्गलपरिवर्तनाखयेऽवशिष्ट प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवति नाधिके इति । इयमेका फाललब्धिः । अपरा समाधान – आपने ठीक कहा है, परन्तु बाह्य कारण के प्राप्त होने पर कार्यसिद्धि होती है अथवा नहीं भी होती है, किन्तु बाह्य कारण के अभाव में तो नियम से नहीं होती है । जैसे कि कुभकार, चाक, चीवर, दण्ड आदि बाह्य कारणों के अभाव में घड़े की उत्पत्ति नहीं होती है, किन्तु इन कारणों के मिल जाने पर घड़ा उत्पन्न होता है अथवा नहीं भी होता है । इसलिये यह निश्चित हो गया कि ये सब बाह्य कारण निरर्थक नहीं हैं । अब अंतरंग के उपशम आदि अंतरंग निमित्त हैं । दर्शन मोहनीय के उपशम आदि अंतरंग निमित्त हैं। वे तो काललब्धि आदि के मिलने पर ही होते हैं, न कि नहीं मिलने पर श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा भी है "सात प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यक्त्व होता हैं । शंका- अनादि मिध्यादृष्टि भव्य जीव के कर्मोदय से उत्पन्न कलुषता होते रहने पर इन प्रकृतियों का उपशम कैसे होगा ? समाधान — काललब्धि आदि के निमित्त से ही होता है । उसमें अब काललब्धि को कहते हैं- भव्यजीव अर्धपुद्गल परिवर्तन नाम के काल के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण करने के लिये योग्य होता है, अधिक रहने पर नहीं,
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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