SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार प्रामृत १७१ उक्तंच बहरिबभतरकिरियारोहो भवकारणपणासठ्ठ। णाणिस्स अं जिणुतं तं परमं सम्माचारितं' ॥४५॥ बाह्यशुभाशुभवचनकायव्यापाररूपस्य तथैवाभ्यन्तरे शुभाशुभमनोविकल्परूपस्य च क्रियाव्यापारस्य निरोधरूपं निर्विकल्पसमाधिपरिणतं निश्चयचारित्रं एतत्संसारकारणभूतकर्मास्त्रवप्रणाशनार्थं वर्तते निर्विकारस्वसंवित्त्यात्मकशद्धोपयोगलक्षणं परमभेदविज्ञानिनो महामुनेर्भवति। वीतरागचारित्रम्, परमोपेक्षासंयमा, उत्सर्गमार्गः, शुद्धोपयोगः, निश्चयचारित्रम्, अभेदसंयमः-इति पर्यायनामानि । अप्रमत्तसयतास्यसप्तमगुणस्थानाद् आरभ्य क्षीणकषायपर्यंत निश्चयधारित्रं वर्तते। सहजशुद्धसकलविमलकेवलज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वभावनिजपरमात्मनि प्रतपनं तपः तत् निश्चयतपः अभेदरत्नत्रयपरिणतिरूपनिर्विकल्पध्यानमयमिति । कहा भो है-- संसार के कारणों को दूर करने के लिये ज्ञानी जिनेंद्रदेव द्वारा कथित बाह्य-आभ्यंतर क्रियाओं का जो निरोध करना है, वही परम-निश्चय सम्यकचारित्र है। बाह्य शुभ-अशुभ वचन काय के व्यापाररूप और आभ्यंतर में शुभ-अशुभ मन के विकल्परूप जो भी क्रियायें हैं, इन क्रियारूप व्यापारों का निरोध होना, वही निर्विकल्प समाधि में परिणत निश्चयचारित्र है । यह चारित्र संसार के कारणभूत कर्मों के आस्रव को नष्ट करने वाला है। यह चारित्र निर्विकल्प स्वसंवित्तिस्वरूप शुद्धोपयोग लक्षण बाला है, जो कि परमभेदविज्ञानी महामुनि को होता है। इसके वीतराग चारित्र, परमोपेक्षा संयम, उत्सर्गमार्ग, शुद्धोपयोग, निश्चयचारित्र और अभेदसंयम ये पर्यायवाची नाम हैं। अप्रमत्त संयत नाम के सप्तम गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यंत निश्चयचारित्र होता है । सहज शुद्ध सकल विमल, केवल ज्ञान दर्शन सुख वीर्य स्वभावी निज परमात्मा में प्रतपन करना तप है । यह निश्चयतप अभेदरत्नत्रय की परिणतिरूप निर्विकल्प ध्यानमय है। १. द्रव्यसंग्रह ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy