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________________ ३४४ उक्तं च श्रीयोगीन्द्रदेवैः उलि चोप्पड चिट्ठ करि देहि सु मिट्ठाहार । देहहं समल गिरत्थ गय जिमु दुज्जणि उवयार' ॥ यद्यपि अयं कायः खलस्तथापि किमपि ग्रासादिकं दत्वा अस्थिरेणापि स्थिरं मोक्षसौख्यं गृह्यते । नियमसार प्रभूतम् तथैव चोक्तम् अधिरेण थिरा मलिणेण णिम्मला णिग्गुणेण गुणसारं । कारण ज विप्प सा किरिया कि ण कायया ॥ काय संस्कारविरहितानां तपोलक्ष्म्यालिंगितानां योगिनां वन्दनां कुर्वाणा: श्री कुन्दकुन्ददेवा योगिभक्तौ प्राहु: - श्री योगीन्द्रदेव ने कहा है- इस देह का उबटन करो, इसमें तेल आदि की मालिश करो, इसे श्रृंगार आदि द्वारा अनेक प्रकार से सजाओ और इसे अच्छे-अच्छे मिष्ट पक्वान आदि खिलाओ, परन्तु ये सब प्रयत्न व्यर्थ हैं। जैसे कि दुर्जनों का उपकार करना व्यर्थ है । यद्यपि यह काय खल - दुष्ट है, फिर भी कुछ ग्रास आदि देकर इस अस्थिर शरीर से भो स्थिर मोक्षसुख प्राप्त किया जाता है । कहा भी है- · अस्थिर शरीर से स्थिर आत्मा को मलिन शरीर से निर्मल आत्मा को और निर्गुण से गुणों के सार समूह को प्राप्त करने के लिये जो क्रिया करना चाहिये सो तुम क्यों नहीं करते हो ? भावार्थ – यह शरीर अस्थिर है, मलिन है, निर्गुण है । फिर भी रत्नत्रय के द्वारा स्थिर, पवित्र और अनन्त गुणों के पुंजरूप ऐसी आत्मा को प्राप्त करा देता है | अन्यथा इस शरीर के संसर्ग से आत्मा भी संसार में मलिन, अस्थिर और निर्गुण बना रहता है, इसलिए मोक्ष के कारणभूत ऐसी क्रियायें करना चाहिए । कायसंस्कार से रहित और तपलक्ष्मी से आलिंगित ऐसे योगियों की वन्दना करते हुए श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं । १. परमात्मप्रकाश, दोहा १४८ । २. परमात्मप्रकाश, दोहा १४८ की टीका में ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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