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________________ ३४३ नियमसार-प्राभूतम् अधुना व्यवहारनिश्चयकायोत्सर्गलक्षणं भ्याख्याय प्रकृतिमुपसंहन्त्याचार्यदेवाः कायाई परदव्वे, थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं । तस्स हवे तणुसग्गं, जो झायइ णिव्वियापेण ॥१२१।। कायाई परदब्वे थिरभावं परिहरस्तु-कायस्त्रीपुत्रमित्रधनाविपरद्रव्ये 'इदं स्थिर-सदाकालस्थायि' इति स्थिरभावं परिहत्य । जो णिब्बियप्पेण अप्पाणं झायइयस्तपोषनो निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा निजात्मानं ध्यायति । तस्स तणु सग्गं हवेतस्य मुमुक्षोः व्यवहाराविनाभाविनिश्चयकायोत्सर्गो भवेत् । इतो बिस्तर:-कायस्थ उत्सर्गस्त्यागः कायोत्सर्गः, कायसंबंधिइत्यर्थः । ये मुमुक्षवः कायादिपरन्थ्पेषु निर्ममत्वं विदधते, त एव मायो केतु क्षमन्ते । कायस्वभावबोधमन्तरेण वैराग्यं नोत्पद्यते । अस्य स्थभानवन् वर्तते। अब व्यवहार निश्चय कार्योत्सर्ग का लक्षण कहकर आचार्यदेव प्रकृत प्रकरण का उपसंहार करते हैं--- अन्वयार्थ—(कायाई परदब्वे थिरभावं परिहुरत्तु) काय आदि परद्रव्यों में 'यह स्थिर हैं' ऐसा भाव छोड़ करके) जो हिन्यिप्पैणं अप्पाणं झायइ) जो निर्विकल्परूप से आत्मा को ध्याते हैं, (तस्स तणुसन्गं -हवे.) उनके कायोत्सर्ग होता है ।।१२।। टोका-काय, स्त्री, पुत्र, मित्र, धन आदि पर द्रव्यों में 'ये स्थिर हैं' सदा काल रहेंगे, ऐसा स्थिर भाव छोड़ कर जो तपोधन निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर अपनी आत्मा को ध्याते हैं, उन मुमुक्षु साधु के व्यवहार कायोत्सर्ग के साथ अविनाभावी ऐसा निश्चय कायोत्सर्ग होता है । ___ इसी का विस्तार करते हैं--काय का उत्सर्ग-त्याग करना कायोत्सर्ग है। इसका अर्थ है कायसम्बन्धी ममत्व का त्याग करना । जो मुमुक्षु साधु कायादि पर द्रव्यों में निर्ममता रखते हैं, वे हो कायोत्सर्ग करने में समर्थ हो सकते हैं। काय के स्वभाव का ज्ञान हुए बिना वैराग्य नहीं हो सकता है, इस काय का स्वभाव दुर्जन पुरुष के समान है।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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