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________________ ३४२ नियमसार-प्राभृत आयातेऽनुभवं भवारिमथने निमुक्तमूर्याश्रये, शुद्धेऽन्यावृशि सोमसूर्यहुतभुक्कांतेरतन्तप्रभे। यस्मिन्नस्तमुपैति चित्रमचिरान्निःशेषवस्त्वतरम्, तद्वंवे विपुलप्रमोवसदनं चिद्रूपमेक महः ।। अस्य विच्चैतन्यचिन्तामणिस्वरूपतेजसश्चिन्तनेन वंदनया ध्यानेन च एतादृशं पवं प्राप्यते, यत्र मृत्युरपि भृशं म्रियते का पुमरन्येषां कथा ? उक्तं च अनेनैव सरिणा जातियति न यत्र यत्र च मृतो मृत्युजरा जरा, जाता यत्र न कर्मकायघटना नो वाग न च व्याषयः । यत्रात्मैव परं चकास्ति विशदज्ञानकमूर्तिः प्रभुः, नित्यं तत्पदमाश्रिता निरूपमाः सिद्धाः सदा पान्तु यः ॥ इति निश्चित्याध्यात्मध्यानसिद्ध्यर्थ सततं भेदविज्ञानमेव भावनीयम् ।।१२०॥ जो चैतन्यरूप तेज संसाररूपी शत्रु को मथने वाला है, रूप रस गंध स्पर्शरूप मूर्ति से रहित होने से अमूर्तिक है, शुद्ध है, अनुपम है तथा चन्द्र सूर्य एवं अग्नि की प्रभा की अपेक्षा अनन्तगुणी प्रभा से संयुक्त है, उस चैतन्यरूप तेज का अनुभव प्राप्त हो जाने पर आश्चर्य है कि अन्य समस्त पर पदार्थ शोघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, अर्थात् उनका फिर विकल्प ही नहीं रहता है। अतिशय आनन्द को उत्पन्न करने वाले उस चैतन्यरूप तेज को मैं नमस्कार करता हूँ। इस चिच्चैतन्य चितामणि तेज के चिंतन से, वन्दना से और ध्यान से ऐसा पद प्राप्त होता है कि जहाँ पर मृत्यु भी मर जाती है, पुनः अन्य की क्या बात ! इन्हीं पद्मनंदि आचार्य ने इसी बात को कहा है-- जिस पद में जन्म नहीं होता है, मृत्यु भी मर चुकी है, जरा जीर्ण हो चुकी है. कर्म और शरीर का सम्बन्ध नहीं रहा है, बचन नहीं हैं तथा व्याधियाँ भी शेष नहीं हैं, जहाँ केवल निर्मलज्ञान रूप अद्वितीय शरीर को धारण करने वाला प्रभावशाली आत्मा हो सदा प्रकाशमान है उस मोक्षपद को प्राप्त हुए अनुपम सिद्ध परमेष्ठी सदा आप की रक्षा करें । ऐसा निश्चय करके अध्यात्म ध्यान को सिद्धि के लिये सतत भेदविज्ञान की ही भावना करते रहना चाहिये ।।१२०॥ १. पदमनंक्षिपचविंशतिका अध्याय १, श्लोक १०८। २. पद्मनंदिपविशतिका, अ० १, श्लोक १०९ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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