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________________ ३४५ . .. नियमसारखाभृतम् जल्लमल्ललित्तगसे वंदे कम्ममलकलुप्तपरिसुद्धे । दोहणहमंसुलोमे तवसिरि भरिये गर्भसामि॥ मनसो नानाविधाशुभसंकल्पविकल्पं परिहत्य ये मुनयः चित्तैकाग्रयेण शुद्धात्मानं ध्यापन्ति सेषामेव मनोबलद्धिः जायते, तस्या निमित्तेनान्तर्मुहूर्तमात्रेणैव ते सर्वमपि द्वादशांगश्रुतं चिन्तयितुं क्षमा भवन्ति । ये अन्तर्बाह्य जल्पमवरुध्य मौलिम्बनेन शुद्धज्ञानदर्शनस्वरूपमात्मानं ध्यायंति, तेषामेव वचनबद्धिरुत्पद्यते, यन्निमित्तेनान्तमहतं यावत्कालं सम्पूर्णद्वादशांगं पठन्तोऽपि न श्राम्यति । तथैव कायक्लेशतपोभिः कायस्नेहमपसार्य स्थिरकायं कृत्वा पद्मासनेन उभीभूतेन वा नानाविधवीरासनकुक्कटासनादिभिर्या कापकुटोरे विद्यमानं परमानन्दैकलक्षणं भगवन्तमात्मानं चिन्त जल्ल-सर्वांगमल और मल्ल-एक अंग का मल, इनसे जिनका शरीर लिप्त है, जो कर्मरूपी मल से उत्पन्न होने वाली कलुषता से रहित हैं, जिनके नख बढ़े हुये हैं और दाढ़ी-मूंछ के बाल भी बढ़े हुये हैं, फिर भी जो तप को लक्ष्मो से परिपूर्ण भरे हये हैं, उन योगियों को मैं नमस्कार करता है । अर्थात् दिगम्बर मनिराज स्नान नहीं ॥रने से पसीने, अलि आदि से लिप्त शरीर रहते हैं. फिर भी कर्म की कलुषता से रहित पवित्र होते हैं । ___ मन के अनेक प्रकार के अशुभ संकल्प-विकल्पों को छोड़कर जो मुनि अपने मन को एकाग्र करके शुद्धात्मा का ध्यान करते हैं उनके ही मनोबल ऋद्धि उत्पन्न हो जाती है, उसके निमित्त से बे अंतर्मुहूर्त मात्र में ही संपूर्ण द्वादशांग श्रुत के चितवन करने में समर्थ हो जाते हैं। जो अंतरंग और बहिरंग जल्प को छोड़कर मौन का अवलंबन लेकर शुद्ध ज्ञानदर्शन स्वरूप अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, उनके ही वचनबल ऋद्धि उत्पन्न हो जाती है, जिसके निमित्त से अंतमुहूर्त मात्र काल में वे संपूर्ण द्वादशॉग शास्त्र का पाठ करते हुये भी थकते नहीं हैं। उसी प्रकार से जो मुनि कायक्लेश तपों के द्वारा काय से स्नेहभाव को छोड़कर और उस काय को स्थिर करके पद्मासन अथवा खड़गासन मुद्रा के द्वारा अथवा अनेक वीरासन, कुक्कुट आसन आदि आसनों से स्थिर होकर इस कायकुटो में विद्यमान परमानंद एक लक्षण वाले भगवान् आत्मा - - १. योगिभक्ति।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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