SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 450
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार-प्राभूतम् आसक्ता भवन्ति ते बकुशाः, एषाम् उत्तरगुणेषु कदाचित् विराधना संभवति । कुशीलाः साधवो द्विविधाः प्रतिसेवनाकषायोदयभेदात् शिष्याविपरिग्रहयुक्ताः कथंकिदुत्तरगुणेषु सदोषाः प्रतिसेवनाकुशीलाः । ग्रीष्मकाले जंशाप्रक्षालनादिसेवनावशीकतान्यकषायोदयाः संज्वलनमात्राधीनत्वात् कषायकुशालाः । क्षीमकवायमुनयो निन्याः । केवलिजिनाः स्नातकाः कथ्यन्ते । येष आधानां त्रयाणां मुनीनां कवाचिद् अशुभभावो जायते । तथा च उक्तं श्रीभट्टाफलकदेवैः "पुलाकस्योतरास्तिस्रो लेश्या भवन्ति । बकुझप्रतिसेवनाकुशीलयोः षडपि । कवायकुशीलस्य परिहारविशुद्धेश्चतस्त्र उत्तराः'।" इमे सर्वे भालगिनो मुनयः पूज्याः सन्ति । उक्तं च तैरेव देवैः "सम्यग्दर्शनं निर्ग्रन्थरूपं च भूषावेशायुषविरहितं तस्सामान्ययोगात् सर्वेष हि पुसमाविष शिष्यादि वैभव में आसक्त रहते हैं, वे बकुश मुनि हैं। उनके उत्तर गुणों में कदाचित् दोष लग जाता है | कुशील मुनि के दो भेद हैं--प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील । जो शिष्य आदि परिग्रह से युक्त हैं, कथंचित् उत्तर गुणों में दोष लगा देते हैं, वे प्रतिसेवनाकुशील हैं। जो ग्रीष्म ऋतु में जंघाप्रक्षालन आदि कर लेते हैं, अन्य कषायों को तो वश में कर चुके हैं, मात्र संज्वलन कषाय के अधीन हैं, वे कषायकुशील हैं । बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि निग्रंथ कहलाते हैं और केवली भगवान् स्नातक कहलाते हैं। इनमें से आदि के तीन प्रकार के मुनियों के कदाचित् अशुभ भाव हो जाते हैं। इसी बात को श्री भट्टाकलंक देव ने कहा है-- पुलाक मुनि के आगे की तीन शुभ लेश्यायें होती है। वकुश और प्रतिसेवनाकुशील के छहों लेश्यायें होती हैं। कषायकुशील और परिहारविशुद्ध संयमी के कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये चार लेख्यायें होती हैं । ये सभी भावलिंगी मुनि पूज्य होते हैं। उन्हीं अकलंकदेव ने कहा है-- जो सम्यग्दर्शन और भूषा, वेश, आयुध आदि से रहित निग्रंथरूप होता है वह इन १. तत्त्वार्थराजवात्तिक, अ० ९, सूत्र की वात्तिक !
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy