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________________ ४२० नियमसार- प्राभूतम् निग्रॅन्थशब्दो युक्तः ।" एषां त्रिभेदयुक्तमुनीनां शिष्यादिपरिग्रहनिमित्तेन जातुचिदेव अशुभभावः संभवति न च सर्वकालम् । तस्माद् इमे पूज्या वंदनाभक्तियोग्या एव, न च पार्श्वस्थकुशीलादिसदृशा अवंद्याः, इति ज्ञात्वा निर्ग्रन्थस्नातकावस्याप्राप्त्यर्थं निर्ग्रन्थरूपं धृत्या विषयकषायाद्यशुभदुर्ध्यान वचनार्थं सततं त्वया शुभभावो विधेयः ।। १४३ ।। भवद्भः शुभभावस्योपदेशो विहितस्तहि किं सर्वथाऽयमुपादेय उठ कथंचिदेवेत्याशंकायामुपदिशन्त्याचार्य देवा:-- जो चरदि संजदो खलु, सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो । तुम्हा तस्स दु कम्मं, आवासयलक्खणं ण हवे ॥ १४४ ॥ जो संजो खलु सुहभावे चरदि- यः संयतो मुनिः खलु निश्चयेन देयवन्दनास्वाध्यायादिशुभभावे चरति प्रवृत्ति विदधाति सो अण्णवसो होइ - सोऽपि अन्यवशो सभी मुनियों में है । इसलिये इन पुलाक आदि पांचों प्रकार के मुनियों में निर्ग्रन्थ शब्द युक्त ही है। इनमें से तीन प्रकार के मुलियों के शिष्य आदि परिकर के निमित्त से कदाचित् ही अशुभ भाव संभव है, न कि हमेशा । इसलिये ये पूज्य हैं, वंदना भक्ति के योग्य हैं किंतु पार्श्वस्थ, कुशील आदि के समान ये अपूज्य नहीं हैं। ऐसा जानकर निर्ग्रन्थ और स्नातक अवस्था को प्राप्त करने के लिये निर्ग्रन्यरूप धारण करके विषयकषाय आदि अशुभ खोटे ध्यान से बचने के लिये तुम्हें सतत शुभभाव रखना चाहिये || १४३ ।। आपने जो शुभभाव का उपदेश दिया है, तो क्या वह सर्वथा उपादेय है, अथवा कथंचित् ही ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव समाधान देते हैं- अन्वयार्थ - ( जो संजदो खलु सुहभावे चरदि) जो संयत निश्चित ही शुभभाव में आचरण करते हैं, (सो अण्णवसो हवेइ) वे अन्यवश होते हैं । (तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे ) इसलिए उनका कर्म आवश्यक लक्षण नहीं होता है । टीका — जो संयत मुनि निश्चित ही देववन्दना, स्वाध्याय, आदि शुभ भाव में प्रवृत्ति करते हैं, वे भी अन्यवश होते हैं । यह कथन निश्चयनय को प्रधान करके १. वत्वार्थराजकात्तिक अ० १ सूत्र की वार्तिक ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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