SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार- प्राभृतम् २३५ णता सती भव्यजीवं नियमेन एभ्यो मोचयति इति अवबुध्य सततं भेदविज्ञानं कर्तव्यम् ॥ ७८ ॥ तहि अहं शिथिलमा देवर णाहं बालो बुड्ढो, ण चेत्र तरुणो ण कारणं तेसिं । कत्ता पण हि कारइदा, अणुमंता णेत्र कत्तीणं ॥ ७९ ॥ स्याद्वादचन्द्रिका टीका- अहं बालो बुड्ढो ण - अहं मनुष्यगती आगत्य कदाचिद् तिर्यग्गतौ वा गरा न जातु बा भवामि, न जीर्णशीर्णदेहो वृद्धो वा भवामि ! तहि किं सदा तरुण एव इति चेत् ? ण वेव तरुणो-यौवनपरिणतस्तरुणोऽपि न जातुचित् भवामि । शुद्धचिन्मयधातुनिर्मित चैतन्य मूर्तिस्वरूपत्वात् पुरुषाकारो भूत्वापि निराकार एव अस्मि । तेसि कारणं ण- तेषां पर्यायाणां कारणरूपभावेन अहं न परिणमामि । णहि कत्ता कारदा व कत्ती अणुमंता अहं एतब्बालवृद्ध तरुणावस्थानां न खलु कर्ता न कारयिता न चैवानुमन्ता भवामि । से समझ लेना चाहिये । वास्तव में गोम्मटसार के जीवकांड और कर्मकांड का अच्छी तरह स्वाध्याय कर लेने पर ही इन नियमसार आदि अध्यात्म ग्रंथों का अर्थ ठीक से समझ में आ सकता है ||७८|| तो फिर मैं शिथिल गात्रकला और दीनता का पात्र ऐसा वृद्ध होता हूँ या नहीं ? ऐसा प्रश्न होने पर सूरिवर्य उत्तर देते हैं अन्वयार्थ --(अहं बाली बुड्ढो ण) मैं न बालक हूँ, न वृक्ष हूँ, (ण चैव इनका कारण हूँ। ( णहि कत्ता ( कत्तीणं णेव अणुमंता) और न तरुणो ण ते सिं कारणं) न तरुण ही हूँ और न कारइदा ) न इनका कर्ता हूँ न कराने वाला हूँ, करने वालों को अनुमति देने वाला ही हूं । टीका- मैं मनुष्य गति में आकर अथवा कदाचित् तिर्यंच गति में जाकर न बालक होता हूँ, न जोर्ण-शीर्ण देह वाला वृद्ध ही होता हूँ और न कभी भी युवावस्था से सहित तरुण ही होता हूँ । मैं सदा शुद्ध चिन्मय धातु से निर्मित चैतन्यमूर्तिस्वरूप होने से पुरुषाकार होकर भी निराकार ही हूँ । इन बाल वृद्ध तरुण पर्यायों के कारणरूप से कभी में परिणमन नहीं करता
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy