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नियमसार-प्राभृतम् संप्राप्तिश्च में भूयाविति पुनः पुनः प्राय॑ते मया । नमोऽस्तु श्रीकुन्दकुन्ददेवप्रभृतिवीरसागरगुरुवेवेभ्यः ।
एवं "मिच्छत्तपहविभावा" इत्यादिनानादिसंस्कारत्यजनापूर्वभावग्रहणसूचनमुख्यत्वेन द्वे सूत्रे गते, तदनु निश्चयोतमार्थप्रतिक्रमणं ध्यानमेवेत्यादिकथनप्रधानत्वेन एक सूत्रं गतम्, पुनरपि सर्वदोषाणां निराकरणरूपप्रतिक्रमणमपि ध्यानमेवेति प्रतिपादनपरत्वेनेक सूत्रं गतम्, तत्पश्चात् वचनरचनोच्चारणप्रतिक्रमणस्य फलसूचनोपसंहारकथनमुख्यत्वेनैकं सूत्रं गतम् । इति पंभिर्गाथासूत्रैस्तृतीयोऽन्तराधिकारो गतः ।
अत्र नियमसारग्रन्थे परमार्थप्रतिक्रमणाधिकारे पूर्वकथितक्रमेण पंचभिः सूत्रैभेवविज्ञानभावनाव्याल्यानम्, तदनु अष्टभिः सूत्रेनिश्चयप्रतिक्रमणपरिणतमुनेः स्वरूपम्, तत्पश्चात् पंचभिः समिथ्यात्वसम्यक्त्वाविहानोपाबानोपदेशध्यानमयप्रतिक्रमणप्रेरणाव्यवहारप्रतिक्रमणसार्थक्योपसंहारश्चेति अष्टादशगाथासूत्रस्त्रयोऽन्तराधिकारा गताः ।
जाती है । श्रीकुन्दकुन्ददेव से लेकर आचार्य वीरसागर गुरुदेव तक सभी महामुनियों को मेरा नमोऽस्तु होवे ।
___इस तरह 'मिच्छत्तपहुदिभावा' इत्यादि गाथा से अनादि संस्कार को छोड़ने और अपूर्व भाव को ग्रहण करने की सूचना की मुख्यता से दो गाथायें हुई हैं। पुनः निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण ध्यान ही है, इत्यादि कथन की प्रधानता से एक गाथा हुई, अनंतर सर्व दोषों के निराकरणरूप प्रतिक्रमण भी ध्यान ही है ऐसा प्रतिपादन करते हुये एक गाथा हुई । इसके बाद वचनरचना के उच्चारणरूप द्रव्य प्रतिक्रमण के फल की सूचना और इस अधिकार के उपसंहाररूप कथन की मुख्यता से एक माथा हुई । इस प्रकार इन पाँच गाथासूत्रों द्वारा यह तीसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ।
इस नियमसार ग्रन्थ में "परमार्थप्रतिक्रमण" नामक अधिकार में पूर्वकथित क्रम से पाँच गाथाओं द्वारा भेदविज्ञान की भावना का व्याख्यान हुआ है । इसके बाद आठ गाथाओं द्वारा निश्चयप्रतिक्रमण से परिणत हुये मुनि का स्वरूप बतलाया गया है, इसके पश्चात् पाँच गाथाओं द्वारा मिथ्यात्व का त्याग और सम्यवत्व के ग्रहण का उपदेश, ध्यानमय प्रतिक्रमण की प्रेरणा, व्यवहार-प्रतिक्रमण की