SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७८ नियमसार प्रामृतम् प्रीणाति । एतद् व्रतमपि कृत्स्नरूपेण मुनीनामेव स्तोकव्रताख्येन श्रावकाणामिति ज्ञात्वा अणुव्रतं गृहीत्वा पूर्णव्रतस्य हेतोः सततं प्रयतितव्यमिति ॥५७॥ तृतीयस्य लक्षण लक्षयन्त्याचार्याः श्रीकुन्दकुन्ददेवा: गामे वा यरे वारण्णे वा पेछिऊण परमत्थं । ¥ जो मुंचदि ग्रहणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव ॥ ५८ ॥ जो गामे वा यरे वारणे वा परमत्थं पेछिऊण गहणभावं मुंचदि-यः साधुः ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा परं अर्थ परकीयं धनादिकं वस्तु प्रेक्ष्य दृष्ट्वा ग्रहणभावं सुचति, तस्य ग्रहणं न करोति । तस्सेव तिदियवदं होदि तस्य एव मुनेः तृतीयव्रतं तृतीयमचर्यव्रतं भवति । पूर्णरूप से मुनियों के ही होता है और अणुव्रत रूप से श्रावकों में होता है, ऐसा समझ कर अणुव्रत को ग्रहण करके सत्य व्रत को पूर्ण करने के लिये सतत ही प्रयत्न करना चाहिये । भावार्थ — जो सदा सत्य बोलते हैं उनको यहाँ पर वचन सिद्धि आदि हो जाती हैं और पुनः वे एक न एक दिन इस व्रत के प्रभाव से दिव्यध्वनि को प्राप्त कर अहंत केवली हो जाते हैं ॥ ५७ ॥ अब श्री कुन्दकुन्ददेव तीसरे व्रत का लक्षण करते हैं अन्वयार्थ - ( जो गामे वा णयरे वा रणे वा परं अत्थं पेछिऊण गहणभावं मुंचदि) जो ग्राम अथवा नगर अथवा वन में पर के अर्थ को देखकर उसको ग्रहण करने का भाव छोड़ देता है, (तस्सेव तिदियवदं होदि ) उसके हो तीसरा व्रत होता है ||५८|| टीका- - ग्राम में, नगर में अथवा शून्य वन में या अन्य किसी भी स्थान में अन्य किसी ने यदि कोई वस्तु रखी है या उसकी गिर गई है या उसने छोड़ दी है अथवा कोई कुछ वस्तु भूल गया है, ऐसा जो कोई भी पर का द्रव्य होवे, या अन्य किसी की पुस्तकें, उपकरण शिष्य छात्रादि होवें, उनको देखकर जो मुनि उन परकीय वस्तुओं को लेने का भाव नहीं करते हैं, उनके यह तीसरा अचौर्य महाव्रत होता है ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy