________________
१७९
नियमसार-प्राभृतम् तद्यथा---ग्रामे नगरे अरण्ये शून्यवने वा, अन्यस्मिन्नपि क्वचित् स्थाने वा परेण जनेन निक्षिप्तं पतितं विसृष्टं विस्मृतं वा यत्किमपि वस्तु तत्परकीयं द्रव्यं अन्यपुस्तकोपकरणछत्रादीनि च विलोक्य यो मुनिः तस्य ग्रहणस्य भावमपि न करोति तस्य तृतीयं महाव्रतं भवति । ननु सर्व अवत्तमनादानेन मुनिना अष्टविधकर्मग्रहणे स्तेयप्रसंगः ? तन्न; कि कारणम् ? यथा वस्त्रपात्रमणिमुक्तादीनि हस्ताविनाऽऽदीयन्ते अन्यस्मै च दीयंते न तथा कर्म आदीयते दीयते वा, अतो नैष दोषः । शब्दाविविषयरथ्याद्वाराद्यादानात् स्तेयदोषः कथं न युज्यते ? न पुज्यते, एषां सामान्यतो मुक्तत्वात्, अत एव मुनिः पिहितद्वारादीन् न प्रविशति । तहि वंदनादिक्रियानिमित्तेन धर्मादानात् प्रशस्तं स्तेयं प्राप्नोति ? एतदपि न, किञ्च यत्र दानाछानसंभवस्तत्रैव चौर्यकर्म गाते, न च सर्वत्र ।
इदं अचौर्यव्रतं मुनेरेव परिपूर्ण भवति न च श्रावकाणाम, तेषां देशव्रतमेव
शंका- सभी बिना दी हुई वस्तु न ग्रहण करने वाले मुनि को आठ प्रकार के कर्मों को ग्रहण करने से चोरी का दोष आयेगा ।
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि जैसे वस्त्र पात्र मणि मोती आदि हाथ आदि से ग्रहण किये जाते हैं और हाथ आदि से ही दूसरों को दिये जाते हैं। उस तरह ये कर्म न ग्रहण किये जाते हैं और न किसी को दिये जाते हैं । इसलिये उनके ग्रहण में चोरी का दोष नहीं है ।
शंका--शब्द आदि इन्द्रियों के विषयों का ग्रहण करना, गलियों में या सड़कों पर चलना, किसी के द्वार आदि में प्रवेश करना, इन सबमें भी चोरी का दोष क्यों नहीं आता है ? ।
समाधान नहीं आता है, क्योंकि ये सामान्यतया छोड़े हुए विषय हैं । इसलिये मुनिराज बंद दरवाजों में प्रवेश नहीं करते हैं ।
शंका--तब तो देवबंदना आदि क्रियाओं के करने में पुण्य का ग्रहण होता है, इसमें प्रशस्त चोरी का दोष लग सकता है ?
समाधान--यह भी नहीं है, क्योंकि जहाँ पर लेने देने का व्यवहार संभव है, वहीं पर चोरी का दोष लिया जाता है, न कि सभी जगह ।।
यह अचौर्य व्रत मुनि के ही पूर्ण होता है, न कि श्रावकों के । उनके लिए तो