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________________ १८० निगमसार-प्राभृतम् कथ्यते। ये च एतद् व्रतं पालयन्ति, ते नियमेन अनन्तचतुष्टयलक्ष्मीमधिकृत्य त्रैलोक्यसाम्राज्यमपि अचिरेण हस्तगतं कुर्वन्ति। इति ज्ञात्वा सर्वमदत्तं त्यक्त्वा निजगुणसंपदेव रक्षणोयाऽतिप्रयत्नेन ॥५॥ प्रह्मचर्यव्रतस्वरूपं प्रतिपादयन्ति ब्रह्मवतनिरताः सूरयः-- दवण इच्छिरूवं वांछाभावं णिवत्तदे तासु । मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरीयवदं ॥५९॥ दद्रुण इच्छिरूवं तासु वांछाभावं णिवत्तदे-यो मुनिः स्त्रीरूपं दृष्ट्वा तासु वाञ्छाभावं निवर्तते, सासु स्त्रीषु अभिलाषां न करोति। अहव मेहुणसण्णविवज्जियपरिदेशवत ही कहा गया है । जो मुनिराज इस अचौयं महाव्रत का पालन करते हैं, वे नियम से अनंतचतुष्टय लक्ष्मी को प्राप्त करके शीघ्र ही तीन लोक के साम्राज्य को भी हस्तगत कर लेते हैं। ऐसा समझकर सब बिना दी हुई वस्तु को छोड़कर अतिप्रयत्न पूर्वक अपने गुणों की संपत्ति की ही रक्षा करनी चाहिये । भावार्थ-जो चोरी का पूर्णतया त्याग कर अचौर्य महावत पालन करते हैं, वे मुनिराज अपने अनंतचतुष्टय आदि अनंत गुणों को प्राप्त करने में समर्थ हो जाते हैं । इस प्रकरण में कर्मों का ग्रहण, शब्द, गंध आदि इंद्रिय विषयों का ग्रहण और पुण्य कर्मों का ग्रहण करना चोरी नहीं है, ऐसा खुलासा किया है तथा अन्य मुनियों की पुस्तकें उनके शिष्य या उनके उपकरण पिच्छी-कमंडलु आदि को बिना पूछे लेना भी चोरी है, ऐसा बताया है ।।५८।। अब ब्रह्मवत में निरत हुए आचार्यदेव ब्रह्मचर्यव्रत का स्वरूप प्रतिपादित कर रहे हैं - - अन्वयार्थ--(इच्छिरूवं दटूण तासु वांछाभावं णिवत्तदे) जो स्त्रियों के रूप को देखकर उनके प्रति बांछा नहीं करते हैं, (अहव मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो तुरियबद) अथवा उनका मैथुन संज्ञा से रहित परिणाम होना यह चौथा महावत है ।।५९॥ . टीका--जो मुनिराज स्त्रियों के रूप को देखकर उनकी इच्छा नहीं करते हैं, अथवा उनका जो मैथुन संज्ञा से रहित भाव है, वही उन मुनियों का चौथा ब्रह्मचर्य महावत है। उसी का खुलासा करते हैं---
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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