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________________ नियमसार-प्राभृतम् ३६५ तात्पर्यमेतत् -- ये महासाधवः सर्वजीवेभ्योऽभयदानं ददते, त एव रागद्वेषाभावतो स्वात्मानुकम्पां कुर्वाणाः परमस्वस्थनिजपरमाह्लादमय स्वशुद्धात्मनि तिष्ठन्ति, तेषामेव निश्चयसामायिकं भवतीतिमत्त्वा परमसाभ्यमेव सततमवलम्बनीयम् ॥ १२६ ॥ पुनः कस्य साधो स्थायि सामायिकः भवतीति सूचयन्त्याचार्यदेवाः- जस्स सणिहिदो अप्पा, संजमे नियमे तवे । तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१२७॥ जस्स अप्पा संजमे नियमे तवे सहिदो यस्य भेवाभेदरत्नत्रयसहितस्य मुनिनाथस्य आत्मा प्राणीन्द्रियसंयमे सप्तदशासंयमरहिते वा । परिमितकालाचरणरूपे नियमे व्यवहारनिश्वयत्रैरत्नस्वरूपे नियमे वा अनशनप्रभृतिबाह्याभ्यंतरे स्वात्मतत्त्वाविचल स्थितिस्वरूपध्यानमये तपश्चरणे वा सन्निहितः, तत्रैव स्थितोऽस्ति । यहाँ तात्पर्य यह समझना कि जो महासाधु सभी जीवों को अभयदान देते हैं, वे ही राग-द्वेष के अभाव से अपनी आत्मा पर दया करते हुये परमस्त्रस्थ निजपरमाह्लादमयस्त्रशुद्ध आत्मा ठहरते हैं । उनके ही निश्चय सामायिक होती है, ऐसा मानकर परमसाम्य भाव का ही सतत अवलंबन लेना चाहिये ॥ १२६ ॥ पुनः किन साधु के स्थायी सामायिक होती है ! आचार्यदेव इसको सूचित करते हैं- अन्वयार्थ - ( जस्स अप्पा संजमे नियमे तवे सणिहिदो ) जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में लगी हुई है, ( तस्स ठाई सामाइग) उसी के स्थायी सामायिक होती है, ( इदि केवलिसासणे ) ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा है । टीका --- जिन भेदाभेद रत्नत्रय से सहित मुनिनाथ की आत्मा प्राणीसंयम, इन्द्रियसंयम रूप बारह प्रकार के संयम में अथवा सत्रह प्रकार के असंयम के अभावरूप संयम में संलग्न है, परिमित काल के आचरणरूप नियम में अथवा व्यवहारनिश्चय रत्नत्रयस्वरूप नियम में लगी हुई हैं, अनशन आदि बाह्य और
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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