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________________ ३६६ नियमसार- प्राभृतम् तस्स ठाई सामाइगं - तस्यैव अप्रमत्तमुनेः स्थायि सामायिकं भवेत् । इदि केवलिसासणे - इति इत्यंप्रकारेण आर्हतशासने कथितं वर्तते । के ते सप्तदशा संयमाः ? पंचासह विरमण पंथिवियणिमाहो कसायजओ 1 तिहि वजह य मिरवी, सत्तारस संजमा भणिवा' ॥ एभिः शून्या असंयमा अपि सप्तदशविधा भवन्ति । तात्पर्यमेतत् - यस्य मुनेः संयमनियमतपोभिः सह समागमन मैक्यं वर्तते, तस्यैव निश्चयसामायिक सिद्धयति । उक्तं च मूलाचारे- माणसं जं तं पसस्पसमगमणं ! समयं तु सं तु भणिवं तमेव सामाइयं जाणं * ।। एतत्सामायिकस्य स्थायिकरणोपायं ज्ञात्वा भवद्भिरपि सततं तस्य भावना विधातव्या तावत् यावत् तन्न स्वस्मिन् स्थिरीभूयात् ॥ १२७ ॥ अभ्यंतर तप में या स्वात्मतत्त्व में अविचल स्थितिस्वरूप ध्यानमय तपश्चरण में ली है। उन्हीं अप्रमत्त मुनि के स्थायी सामायिक होती है । इस प्रकार से अर्हन्तदेव के शासन में कहा है । प्रश्न - - सत्रह प्रकार के असंयम कौन से हैं ? उत्तर -- पाँच आस्रवों से विरक्त होना, पाँच इन्द्रियों का निग्रह करना, चार कषायों को जीतना और तीन दण्ड- मन वचन काय की प्रवृत्ति से विरक्त होना ये सत्रह संयम हैं । इनसे विपरीत सत्रह प्रकार का असंयम होता है । तात्पर्य यह हुआ कि जिन मुनि का संयम, नियम और तप के साथ समागम है - एकता है, उन्हीं मुनि के निश्चय सामायिक होती है । मूलाचार में कहा भी है---- सम्यक्त्व, ज्ञान, संयम और तप के साथ जो प्रशस्त समागम है, वह समय है । उसे ही तुम सामायिक जानो । इस सामायिक के स्थायी करने के उपाय को जानकर आपको भी सतत तब तक उसकी भावना करते रहना चाहिये, जब तक वह अपनी आत्मा में स्थिर नहीं हो जावे ।। १२७॥ १. प्रतिक्रमणमन्त्री, पृ० ५० । २. मूळाचार, अ० ७, गाथा १८ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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