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________________ नियमसार-प्राभृतम् गयणमिव णिरुवलेवा अक्योहा सायरुच्व मुणिवसहा । परिसगुणणिलयाणं पायं पणमामि सुद्धमणो' । यादग गुरूणां पादपन श्रीकुंदकुंददेवाः प्रणमन्ति तादृग्गुणगुरव: आचार्योपाध्यायसाधवो भवन्ति, तेषु कश्चिदन्यतमो दिगम्बरमुद्राधारो महाश्रमणः परमसाम्यभावनापरिणतः सन् धनगिरिगुहाकंदरासु निवसन कायक्लेशविचित्रोपवासाध्ययनमौनादिभिः जिनकल्पी भूत्वा, सर्वसावधयोगाद्विरतस्त्रिगुप्तो विजितेन्द्रियः सर्वत्रसस्थावरजीवेषु साम्यं विदधानः स्वमात्मानं संयमनियमतपःसु संनिधाप्य रागद्वेषातरौद्रानपुण्यपापभावहास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रीपुनपुंसकवेदस्वरूपनोकषायप्रभृतीन् सर्वान् विभावभागण मुक्त्वा हयातनगे वनमानेर वा निजशुद्धपरमानन्दलक्षणमात्मानं ध्यायति, तस्यैव वचनोच्चारणक्रियाविरहितधीतरागभावपरिणतशुद्धोपयोगिमहामुनेः स्थायिसामायिकरूपेण परमसमाधिः सिद्धयति । लेप से रहित हैं और सागर के समान अक्षोभ्य-क्षोभरहित गंभीर हैं, ऐसे इन गुणों के स्थानस्वरूप गुरुओं के चरणों को मैं शुद्धभन होकर नमस्कार करता हूँ। जैसे इन गुरुओं के चरणकमलों को श्री कुन्दकुन्ददेव प्रणाम कर रहे हैं, ऐसे गुणगुरु आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी ही होते हैं। उनमें से कोई एक दिगम्बर मुद्राधारी महाश्रमण परम साम्य भावना से परिणत होते हुये निर्जन बन, पर्वत, गुफा और कंदरा आदि में निवास करते हुये कायक्लेश, विचित्र उपवास, अध्ययन, मौन आदि के द्वारा जिनकल्पो होकर सर्वसावध योग से विरत, तोन गुप्ति से सहित, जितेन्द्रिय, सर्व बस स्थावर जीवों में समभाव धारण करते हुये, अपनी आत्मा को संयम, नियम और तप में लगाकर राग, द्वेष, आर्त, रौद्र ध्यान, पुण्य, पापभाव, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकरूप, नव नोकषाय आदि सर्व विभाव भावों को छोड़कर धम्य ध्यान अधवा शुक्ल ध्यान के बल से निज शुद्ध परमानंद लक्षण अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, उन्हीं वचनोच्चारण आदि क्रियाओं से रहित, वीतराग भाव से परिणत शुद्धोपयोगी महामुनि के स्थायी सामायिक रूप से परमसमाधि सिद्ध होतो है । १. श्री कुदकुंदकृत आचार्यभक्ति ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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