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________________ नियमसार-प्राभृतम् निश्चयनयाश्रितपरमवीतरागचारित्रमयं स्यायिरूपं कर्तव्यं भवद्भिः भव्यसाधुभिश्चेति अभिप्रायमत्रावबोद्धव्यम् ॥१३२॥ • एतान् सर्वान् विभावभावान् त्यक्त्वा पुनः किं कि कर्तव्यमस्तीनि प्रश्ने रति उत्तरं प्रयच्छन्त्या चार्यदेवा:--- जो दु धम्मं च सुक्कं च, झाणं झाएदि णिच्चसा। तत्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ।।१३३॥ जो दु धम्म च सुक्कं च झाणं णिच्चसा आएदि-पो महातपस्वी मुनिः ध्यवहारनिश्चयधर्म्यध्यानं शुक्लध्यानं च नित्यमेव ध्यायति, तस्म सामाइगं ठाईतस्यैव सामायिक स्थायिरूपेण तिष्ठति । इदि केवलिसाराणे-इत्थं सप्ततिशतार्यखंडेषु सर्वैरपि तीर्थंकरमहादेवाधिदेवैः प्राप्तम् । उत्तमखमाए पुढवी पसष्णभावेण अच्छ जलसरिसा। कम्भिवणवणादो अगणो बाऊ असंगादो॥ रागचारित्रमय और स्थायीरूप कर लेना चाहिये, यहाँ पर आचार्यदेव का ऐसा अभिप्राय है ।। १३२॥ इन सभी विभाव भावों को छोड़कर पुनः क्या-क्या करने योग्य है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं-- अन्वयार्थ-(जो दु धम्म च सूक्कं च झाणं णिच्चसा झाएदि) जो धर्म्य और शुक्ल ध्यान को नित्यकाल ध्याते हैं, (तस्स सामाइगं ठाई) उनके सामायिक स्थायी होती है। (इदि केवलिसासणे) ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा गया है। : टीका-जो तपस्वी महामुनि व्यवहार-निश्चय धयं ध्यान को और शुक्ल ध्यान को नित्य हो ध्याते हैं, उन्हों के सामायिक स्थायो रूप से रह सकतो है । ऐसा एक सौ सत्तर आयंग्डों में सभी तीर्थंकर महादेवाधिदेव ने कहा है। .. जो मुनिवृषभ उत्तम क्षमा में पृथ्वी के समान हैं, भावों को प्रसन्नतापवित्रता में स्वच्छ जल के समान हैं, कर्मरूपी ईंधन को जलाने में अग्नि हैं, असंगपरिग्रहरहित होने से वायु के समान निःसंग हैं, आकाश के समान पाप आदि के
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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