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नियमसार-भाभृतम् इदानीमकान्ताभिप्राय निराक कामा अनेकान्तमूलहेतुं नयविषक्षा सूघमन्ति भगवन्तः कुदकुददेवा:
कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा । कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो ॥१८॥
आदा कत्ता भोत्ता होदि-आत्मा पूर्वोक्तगुणपर्ययसमवेत एष जीवः कर्ता भोक्ता भवति । कस्य? पोग्गल क्रम्मस्स-पुद्गलकर्मणः पुदगलोपादानमतद्रव्यकर्मणः । कस्मात् ? ववहारा-व्यवहारात व्यवहारनयादेशादिति । तहि निश्चयनयात् कर्ता भोक्ता च नास्ति इति अर्थापत्तेरायालम् ? नैवं; दु णिच्छयदो आदा कम्मजभावेण कत्ता भोत्ता-तु निश्चयतः आत्मा कर्मजभावेन कर्ता भोक्ता, किन्तु निश्चयनयेन अयमेवात्मा कर्मजनितभावस्य रागद्वषाविभावकर्मणः कर्ता भोक्ता भवति ।
इतो विस्तर:-अयमात्माऽनादिकर्मबंधनबद्धः सन् पुद्गलकर्मणां कर्ता भवति ।
भगवान् कूदकुंददेव अब एकांत अभिप्राय के निराकरण की इच्छा रखते हुए अनेकांत के मूलकारण ऐसी नय-विवक्षा को दिखलाते हैं
अन्वयार्थ-(ववहारा) व्यवहारनय से (आदा) आत्मा (पोग्गलकम्मस्स) पुद्गल कर्मों का (कत्ता भोत्ता होदि) कर्ता-भोक्ता होता है । (दु णिच्छयदो) किंतु निश्चयनय से (आदा) आत्मा (कम्मजभावेण) कर्म से उत्पन्न हुये भावों का (कत्ता भोत्ता) कर्ता-भोक्ता है ।। १८।।
टीका--पूर्वोक्त गुण-पर्यायों से सहित यह जीवात्मा जिसके उपादानकारण पुद्गल है, ऐसे पौद्गलिक द्रव्यकों का करने वाला और भोगने वाला होता है। यह 'व्यवहार नय' का कथन है ।
शंका-तब तो निश्चयनय से यह कर्ता और भोक्ता नहीं है, यह बात अर्थापत्ति से ही सिद्ध हो गई ?
___ समाधान-ऐसी बात नहीं है, बल्कि निश्चयनय से यही आत्मा कर्म से उत्पन्न हुए राग-द्वेष आदि भावकों का करने वाला और भोगने वाला होता है । यहाँ पर अशुद्ध निश्चयनय समझना चाहिये।
इसी का विस्तार कहते है-यह आत्मा अनादिकाल से कर्मों से बंधा