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________________ नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च "सत्तरसेकग्गसयं चउसत्तत्तरि सद्वि तेवढी । बंधा जवषण्णा बुधीसप्तारसेकोघे ॥१०॥" मिथ्यात्वादिसयोग्यन्तत्रयोदशगुणस्थानतिनो जीवाः क्रमेण सप्तदशानशतएकाग्रशत-चतुःसप्तति-सप्तसप्तति-सप्तषष्टि-त्रिषष्टि-नवपंचाशत्-अष्टपंचाशत्-द्वाविंशति-सप्तदश-एकैककप्रकृती: बध्नन्ति । अन्यत् किं श्रेणिमारुह्यापि महामुनयोऽष्टमगुणस्थानेऽष्टपञ्चाशतप्रकृतीनां बंधकाः सन्ति । ताः काः प्रकृतय इति चत् ? दृश्यतां, निद्रा-प्रचला-तीयकर-निर्माण-प्रशस्तविहायोगति-तैजस-कार्मण-आहारकतयसमचतुरस्रसंस्थान-पंचेद्रियजाति- देवचतुष्क-वणंचतुष्का-गुरुलाचतुष्क-त्रसनवकहुआ होने से पुद्गल कर्मों का कर्ता होता है। श्री नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्तीदेव ने कहा है गाथार्थ- ये जोव गुणस्थानों में पहले से लेकर क्रम से ११७, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३, ५९, ५८, २२, १७, १, १, १ और ० शून्य इस तरह कर्म प्रकृतियों को बाँधता है । खुलासा इस प्रकार है- 'मिथ्यात्व' गुणस्थान में ११७ का बंध है, 'सासादन' में १०१ का, मिश्र में ७४ का, 'असंयत सम्यग्दृष्टि' में ७७ का, देशविरत में ६७ का 'प्रमत्त विरत' में ६३ का, 'अप्रमत्त' में ५९ का, 'अपूर्वकरण' में ५८ का, 'अनिवृत्तिकरण' में २२ का, 'सूक्ष्म-सांप राय' में १७ का, 'उपशांतमोह', 'क्षीणमोह' और 'सयोगकेवली'-इन तीनों गुणस्थानों में एकमात्र सातावेदनीय का ही बंध करता है। और तो क्या आठवें गुणस्थानवर्ती महामुनि श्रेणी में चढ़कर भी ५८ कर्म प्रकृतियों का बंध कर रहे हैं। शंका- कौन सी प्रकृतियों है ? समाधान-देखिये- १. निद्रा, २. प्रचला, ३. तीर्थकर, ४. निर्माण, ५. प्रशस्तविहायोगाति, ६. तेजस, ७. कार्मण, ८. आहारकशरीर, ९. आहारक अंगोपांग, १०. समचतुरस्रसंस्थान, ११. देवगति, १२. देवगत्यानुपूर्वी, १३. बक्रियिक अंगोपांग, १५. स्पर्श, १६. रस, १७, गंध, १८. वर्ण, १९. अगुरुलघु, २०. उपघात, २१. परघात, २२. उच्छ्वास, २३. त्रस, २४. बादर, २५. पर्याप्त, २६, प्रत्येक शरीर, २७, स्थिर, २८. शुभ, २९. सुभग, ३०. सुस्वर,
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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