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________________ नियममार-प्राभृतम् हास्य-रति-भय-जुगुप्सा-पुरुषवेद-संज्वलनचतुष्क-ज्ञानावरणपंचक- दर्शनावरणचतुष्क - अंतरायपंचक-यशम्कीति-उच्चगोत्र-सातावेदनीयाख्याएपंचाशत्-प्रकृतयो बंधमुपयान्ति नानाजीवापेक्षयेतत् । वीतरागछद्मस्थयोः केवलिनश्च सातावेदनीयं बध्यते । अतः इमे जीवाः स्वस्वगुणस्थानयोग्यस्य पुद्गलकर्मणः कर्तारो भवन्ति । तथैव पुद्गलकर्मणो भोक्तारोऽपि, तद्यथा "सत्तरमेषकारखचबुसहियसयं सगिगिसीवि छदुसबसे। छावट्टि सट्टि गवसगवण्णास दालवारुबया ॥२७६॥" मिथ्यादृष्ट्यादि-अयोगकेथलिपयंता जीवाः क्रमशः सप्तदशोत्तरशत-एकादशशत-शत-चतुरुत्तरशत-सप्ताशीति-एकाशीति षट्सप्तति-द्वासप्तति-षट्पष्टि-पष्टि-नव ३१. आदेश, ३२, हास्य, ३३. रति, ३४. भय, ३५. जुगुप्सा, ३६. पुरुषवेद, ३७. संज्वलन क्रोध, ३८. संज्वलन मान, ३१. संज्वलन माया, ४०. संज्वलन लोभ, ४१. मतिलानग वरण, ४२. शुततादातरण, ४१. अनविज्ञानावरण, ४४. मनःपर्ययज्ञानावरण, ४५. केवलज्ञानावरण, ४६. चक्षुदर्शनावरण, ४७. अचक्षुर्दर्शनावरण, ४८, अवधिदर्शनावरण, ४९. केवलदर्शनावरण, ५०. दानांतराय, ५१. लाभांतराय, ५२. भोगांतराय, ५३. उपभोगांतराय, ५४. वीर्यात राय, ५५. यशस्कीति, ५६. उच्चगोत्र, ५७. पंचेंद्रियजाति और ५८. सातावेदनीय-ये ५८ प्रकृतियाँ बंधती रहती है। यह नाना जीवों की अपेक्षा कथन है। इसी प्रकार वीतरागं छद्मस्थ महामुनि, जो कि 'यथाख्यात चारित्र' को प्राप्त कर चुके हैं, ऐसे वे 'उपशांतकषाय' और 'क्षीणकषाय' गुणस्थानवर्ती तथा 'सयोगकेवली' भगवान्इनके भी एक सातावेदनीय का बंध होता रहता है । इसलिये ये जीव अपने-अपने गुणस्थान के योग्य पुद्गलवर्म प्रकृतियों के कर्ता होते हैं । उसी प्रकार से पुद्गल कर्मों के भोक्ता भी हैं--- उसी का स्पष्टीकरण करते हैं-- 'मिथ्यादृष्टि' गुणस्थान से लेकर 'अयोगकेबली' पर्यंत जीव उन-उन गुणस्थानों में कम से ११७, १११, १००, १०४, ८७, ८१, ७६, ७२, ६६,६०, ५९, ५८, ४२ और १२ प्रकृतियों के उदय का अनुभव करते हैं। इसलिये ये १, गोमटसारकर्मः ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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