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________________ नियमसार-प्राभृतम् अवुःखभावितं ज्ञानं क्षीयते दुःखसन्निधौ। तस्माद्यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः ॥' ते जयन्तु धर्मतीर्थप्रवर्तका: श्रीपुरुदेवतीर्थंकराः यैः प्रकटिताहारप्रत्याख्यानाविमुनिचर्याविधिरद्यावधि साधुभिः परिपाल्यते । येभ्यश्चैकवर्षचतुर्विशतिदिवसपर्यंतमुपोषितेभ्य इक्षुरसाहारं दत्वा राजा श्रेयांसकुमारी दानतीर्थप्रवर्तको जातः, पश्चात् तेषामेव गणधरो भूत्वा मुक्तिश्रियमवाप्नोत् तैः सार्धं सोऽपि जयतात् । एवं "णिक्कसायस्स" इत्यादिना निश्चयप्रत्याख्यानपरिणतमुनेः स्वरूपकथनप्रधानत्वेन ' सूत्रे गते । अस्मिन् नियमसारमन्थे षष्ठे निश्चयप्रत्याख्यानाख्येऽधिकारे निश्चयप्रत्यात्यानलक्षणसोहंभावनास्वरूपैकत्वसाम्यभावनातत्परिणतसंयतस्वरूपं द्वादशगाथाभिः सुखिया जीवन में किया गया तत्त्वज्ञान अभ्यास दुःख के आजाने पर क्षीण हो जाता है । इसलिये यथाशक्ति दुःखों के द्वारा भी मुनि तत्त्वज्ञान की भावना करता रहे । अर्थात् दु:खों को बुलाबुलाकर भी तत्वज्ञान का अभ्यास करता रहे । यह उपवास आदि तपश्चरण करना दुःखों को बुलाना ही है । वे धर्मतीर्थ के प्रवर्तक श्री पुरुदेव तोयंकर जयशील होवें कि जिनके द्वारा प्रकट की गई ‘आहार प्रत्याख्यान' आदि रूप मुनि-चर्या-विधि आज तक मुनियों के द्वारा पाली जा रही है। जिनको एकवर्ष चौबीस दिवस उपवास करने के बाद इक्षुरस का आहार देकर राजा श्रेयांसकुमार 'दानतीर्थ' के प्रवर्तक हुए हैं। पश्चात उन्हीं भगवान के गणधर होकर मुक्तिलक्ष्मी को प्राप्त किया है, उन भगवान् के साथ थे श्रेयांस कुमार भी जयशील होते रहें। इस तरह 'णिक्कसायस्स' इत्यादिरूप से निश्चय प्रत्याख्यान से परिणत मुनि के स्वरूप को कहने को प्रधानता से दो गाथासूत्र हुए हैं। ___ इस नियमसार ग्रन्थ में छठे निश्चयप्रत्याख्यान अधिकार में निश्चयप्रत्याख्यान का लक्षण, 'सोह' भावना का स्वरूप, एकत्व और साम्यभावना की प्रेरणा, तथा इन रूप से परिणत हुए मुनि का स्वरूप-इन बारह गाथाओं में प्रतिपादित १. समाधिशतक, प्रलोक १०२।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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