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________________ नियमसार - प्राभृतम् अत्र निर्विकल्पसमाधिरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मक भेदज्ञानाभावादज्ञानी पूर्वोक्तज्ञानगुणसद्भावात् ज्ञानी भवतीति । ततो ज्ञायते परभागमज्ञानतत्त्वार्थ श्रद्धानसंयतत्वानां भेदरत्नत्रयरूपाणां सद्भावेऽप्यभेदरत्नत्रयस्य स्वसंवेदनज्ञानस्यैव प्रधानत्वमिति, श्रीजयसेनाचार्यस्य कथनमस्ति । अतो व्यवहारगुप्तिभिः स्वशुद्धात्मनो भावनां भावयतां महर्षीणामप्रमत्तगुणस्थानादारभ्य क्षीणकषायगुणस्थान पर्यंतमिमा गुप्तयो भवन्ति । तत्रैव निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपा निर्ग्रन्थदिगंबरास्तिष्ठन्तः सन्तः परमसमरसी भावपरिणतपरमाह्लादमयपीयूषमास्वादमानाः परमतृप्ता मोहाग्निसंतप्तजगज्जीवानपि तर्पयन्ति । इति बुबा द्विविधामपि गुप्ति प्राप्तुकामैः त्रयोदशचारित्रधारिमुनीनां सततं भक्तिः कर्तव्या भवति ॥ ६८॥ २५८ अन्येऽपि केचिन्मुनयः प्रतिक्रमणनाम्ना कथ्यन्ते न वेति प्रश्ने सत्माचार्यदेवा निगदति मोत्तृण अहद दाणं जो ज्ञादि का सो पडिकमणं उच्चइ, जिणवरणिदिवसुत्तेसु ॥ ८९ ॥ यहाँ पर निर्विकल्प समाधिरूप निश्चयरत्नत्रयात्मक भेदज्ञान के अभाव से 'अज्ञानी' संज्ञा है और पूर्वोक्त भेदज्ञान गुण के सद्भाव से 'ज्ञानो' होते हैं । इसलिए यह जाना जाता है कि परमागम का ज्ञान, तत्त्वार्थ का श्रद्धान और संयत अवस्था चारित्र, इन भेदरत्नत्रय के सद्भाव में भी अभेद रत्नत्रयरूप स्वसंवेदन ज्ञान की ही प्रधानता है ऐसा श्री जयसेनाचार्य का कथन है । इसलिये व्यवहार-गुप्तियों से स्वशुद्धात्मा की भावना भाते हुए महर्षियों को अप्रमत्त गुणस्थान से प्रारम्भ करके क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यंत ये गुप्तियाँ होती हैं । निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप, निर्ग्रथ दिगम्बर महामुनि रहते हुए परमसमरसीभाव से परिणत परमाह्लादमय पीयूष का परमतृप्त होकर मोहरूपी अग्नि से संतप्त सर्वजगत के जोबों को तर्पित करते हैं । ऐसा जानकर दोनों प्रकार की ही गतियों को प्राप्त करने की इच्छा रखते हुए तेरह प्रकार के चारित्रधारी मुनियों की सतत भक्ति करना उचित है ॥ ८८ ॥ उन्हीं गुप्तियों में आस्वाद लेते हुए और भी कोई मुनि 'प्रतिक्रमण' नाम से कहलाते हैं या नहीं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव कहते हैं अभ्ययार्थ - ( जो अट्टरुदं झाणं मोत्तूण धम्मसुक्कं वा शादि) जो आर्त
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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