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________________ २६६ नियमसार-प्राभुतम् ___ श्रीगणधरवेवकथितप्रतिक्रमणसूत्रेण प्रत्यहं मनयो आर्यिकाञ्चापि प्रातः सायं द्विवारं प्रतिक्रमणकाले भावयति । तथाहि-"समणोमि संजदोमि उधरदोमि उपसंतोमि उवहिणियडिमाणमायामोस मिच्छणाण-मिच्छदसण-मिच्छचरितं च परिविरबोमि, सम्मणाणसम्मवंसण-सम्मचरित्तं च रोचेमि जं जिणवरहिं पण्णत्तं ।" सरलभाषयापि भावना भावनीया भवद्भिः १ श्रमणोऽहम् । २ संयतोऽहम् । ३ उपरतोऽहम् । ४ उपशांतोऽहम् । ५ उपधिनिकृतिमानमायामृषा-मिथ्याज्ञान-मिथ्यादर्शन-मिथ्याचारित्रं प्रति विरतोऽहम् । ६ जिनवरदेवैः प्राप्तं सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शन-सम्यकचारित्रं च रोचेऽहम् । अनया प्रतिक्रमणनामावश्यकक्रियया कृतदोषस्य निराकरणं जायते, व्रतानां स्थैर्य च । यथाऽपथ्यादिसेवनेनोत्पन्नरोगादिविकारे सति औषधसेयनेन रोगादेनिषारणं स्वास्थ्यलाभश्च । श्रीगणधरदेव कथित प्रतिक्रमण सूत्रों का उच्चारण करते हुए मुनि और आर्यिकायें प्रतिदिन प्रात:काल और सायंकाल ऐसे दो बार प्रतिक्रमण के काल में भावना करते हैं । उसो को कहते हैं "मैं श्रमण हूँ, में संयत हूँ, मैं उपरत-विरक्त हूँ, में उपशांत हूँ, में उपधिपरिग्रह, निकृति-बंचना, मान, माया, मृषा-असत्य, मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन सबके प्रति विरक्त होता हूँ और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र, जो कि जिनेंद्रदेव के द्वारा प्रणीत हैं, उनमें रुचि करता हूँ-उन्हों का श्रद्धान करता हूँ।" तथा सरल भाषा में भी आपको भावना भाते रहना चाहिये । मैं श्रमण हूँ, मैं संयत हूँ, में उपरत हूँ, मैं उपशांत हूँ, मैं परिग्रह, वंचना, मान, माया, असत्य, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन, मिथ्याचारित्र से विरक्त हूँ और मैं जिनवर द्वारा कथित सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन तथा सम्यकचारित्र पर रुचि करता हूँ। इस प्रतिक्रमण नाम की आवश्यक क्रिया से किये हुए दोषों का निराकरण होता है और प्रतों में स्थिरता आती है । जैसे कि अपथ्य आदि के सेवन से रोगादि विकार के उत्पन्न हो जाने पर औषध के सेवन से रोगादि का निवारण होता है और स्वास्थ्य-लाभ भी होता है । १. दवसिक प्रतिक्रमण।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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