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________________ नियमसार-प्राभूतम् ३५७ सर्वतोभद्रकनकावलोमेरुपंक्तिसिंहनिष्क्रीडितादिनानाविधश्च । पुनश्च अज्झयणमोणपहुदो-एकादशांगपर्यंतमध्ययनं मौनम् इत्यादयश्च । किं करिष्यति ? न किमपोति । इतो विस्तर: अत्र समतापरिणामेन न केवलं मध्यस्थभावो विवक्षितः, प्रत्युत भेदविज्ञानसहितो वीतरागभावो विवक्षितोऽस्ति । तेन भेदाभेवरत्नत्रयस्वभावेन परिणता ये महामुनयः, त एव निर्जनधनेषु विहरंतः कायक्लेशानशनद्वादशांगाध्ययनमौनाविचर्या कुर्वन्तः सन्तो बहुविधकर्मनिर्जरां कृत्वा घातिकर्माण्यपि हन्तुं क्षमा भविष्यन्ति । ये पुनः सम्यक्त्वशून्याः क्षणिकवैराग्ययुक्ताः सन्तो वने निवसन्त इमां चयाँ पालयन्तोऽपि समभावरहिता भवन्ति, ते स्वर्गादिविभूति सम्प्राप्यापि मोक्षसुखं न प्राप्स्यन्ति । उक्तं च श्रीपूज्यपादवेवेन यो न वेति परं देहादेवमात्मानमव्ययम् । लभते न स निर्वाण तत्वाऽपि परमं तपः ॥ पंक्ति, सिंहनिष्क्रीडित आदि अनेक प्रकार के जावास और म्यारह अंग गर्यत अध्ययन तथा मौन आदि भी समतारहित साधु के लिये क्या करेंगे ? अर्थात् ये सब कुछ भी नहीं करेंगे। इसी का विस्तार कहते हैं यहाँ समता परिणाम से केवल मध्यस्थ भाव ही नहीं विवक्षित है, प्रत्युत भेदविज्ञान सहित वीतरागभाव विवक्षित है । उस भेद-अभेद रत्नत्रय स्वभाव से परिणत जो महामुनि हैं, बे ही निर्जन वनों में बिहार करते हुये कायक्लेश, अनशन, द्वादशांग, अध्ययन, मौन आदि चर्या को करते हुये बहुत प्रकार की कर्मनिर्जरा करके, घाति कर्मों को भी नष्ट करने के लिए समर्थ हो जावेंगे, किंतु जो सम्यक्त्व से रहित हैं, क्षणिक वैराग्य से युक्त होकर वन में निवास करते हुये और अनशन आदि चर्या का पालन करते हुये भी समभाव से रहित होते हैं, वे स्वर्ग आदि की विभूति को प्राप्त करके भी मोक्षसुख' को प्राप्त नहीं कर सकेंगे। श्री पूज्यपाददेव ने कहा भी है जो शरीर से इस अव्यय आत्मा को भिन्न नहीं अनुभव करते हैं, वे उत्कृष्ट तपश्चरण करके भी निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकते । १. समाविशतक, श्लोक ३३१
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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