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________________ ३५८ नियमसार-प्रभृतम् प्रत्युत भेदशानिनो मुनेः तपः कार्यकारीति कथ्यते आरमदेहान्तरज्ञानजनितालावनिर्पतः । तपसा वुष्कृतं घोरं भुजानोऽपि न खिद्यते । वीतरागचारित्राविनाभावि भेदशानं कायक्लेशावितपसाऽपि परमानन्वं जनयति, न च खेदम् । तात्पर्यमेतत् समभावरहितमुनेः काकासादिक पनि नोक्षयुवं पा. मक्षमा, तथापि सर्वथा निरथिका दुर्गतिवायिका संसारवधिका वा न भवति, प्रत्युत मर्त्यलोकस्य स्वर्गस्य च बहुविधसुखाद्यभ्युदयं ददात्येव । किंच, दिगंबराः श्रमणा द्रव्यलिगेनैव नवप्रेयेयकं यावत् गन्तुं शक्नुवन्ति, किंतु ये केचित् सवाससः एकादशप्रतिमावतधारिणः क्षुल्लकाः, कौपीनमात्रधारिण एलकाः, उपचारेण महावसधारिण्य आर्यिकाश्चापि अच्युतस्वर्गादुपरि जितुं न प्रत्युत भेदविज्ञानी मुनि का ही तप कार्यकारी होता है, ऐसा कहते हैं-- आत्मा और शरीर के भेदज्ञान से उत्पन्न हुआ जो आह्लाद है, उससे परम तृप्त हुये मुनि तप से घोर कष्ट को भोगते हुये भी खेद को नहीं प्राप्त होते हैं। वीतराग चारित्र से अविनाभावी भेदविज्ञान कायक्लेशादि तपश्चरण के द्वारा भी परमानंद को उत्पन्न करता है, न कि खेद को। ___ तात्पर्य यह हुआ कि समभाव से रहित मुनि की वनवास आदि चर्यायें यद्यपि मोक्ष-सुख को देने में असमर्थ हैं, तथापि सर्वथा निरर्थक, दुर्गति को देने वाली या संसार बढ़ाने वाली नहीं हैं, प्रत्युत मनुष्य लोक के और स्वर्ग के बहुत प्रकार के सुख आदि अभ्युदयों को देने वाली ही हैं । दूसरी बात यह है कि दिगंबर मुनि द्रव्यलिंग से ही नवग्रेवेयक पर्यन्त जा सकते हैं, किंतु जो कोई वस्त्र सहित ग्यारह प्रतिमा व्रत के धारी क्षुल्लक लँगोटीमात्र धारी ऐलक और उपचार से महाव्रतधारिणो आर्यिकायें भी अच्युत नाम के सोलहवें स्वर्ग से ऊपर जाने में समर्थ नहीं हैं । इसलिए यह जाना जाता है कि ये प्रवृत्तियाँ १. समाधिशतक, श्लोक ३४ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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