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________________ ૨૮૮ नियमसार-प्राभृतम् वसतिकायां निवसति, तथाप्येभ्यो ममत्वं न करोति । स्वस्य मूलगुणोत्तरगुणादिरत्नत्रयनिधि रक्षन् वर्धयन् चैव प्रयतते । अतः कर्मभिनव लिप्यते । उक्तं च जर्व बरे जदं चिट्टे, जदमासे अदं सये। जवं भुज्जिज, भासेज्ज जवो पावं ण बंधई ॥ एवमवध्य साधुभिः स्वपदायोग्यं त्यक्त्वा योग्येऽपि निर्ममताया अभ्यासो विधेयः ॥१०॥ आत्मनः किं किं वर्तते ? इति जिज्ञासायां वदन्रमाचार्याः आदा खु मज्झ णाणे, आदा मे दंसणे चरित्ते य । आदा पच्चक्खाणे, आदा मे संवरे जोगे ॥१०॥ स्याद्वादचन्त्रिाका णाणे खु मज्झ आदा-जाने स्वसंवेदनज्ञाने केवलज्ञाने वा निश्चयेन ममास्मास्ति । दसणे चरित्ते य में आदा-सर्ववस्तुसत्तावलोकनदर्शने तत्त्वार्थवश्वानरूपक्षाममत्व नहीं रखते हैं। मात्र अपने मूलगुण व उत्तरगुण आदि रत्नत्रय-निधि की रक्षा करते हुए और उन्हें बढ़ाते हुए प्रयत्नशील रहते हैं, इसीलिये वे कर्मों से लिप्त नहीं होते हैं । कहा भी है "यत्न से चले, यत्न से ठहरे, यत्न से बैठे, यत्न से सोवे, यत्न से भोजन करे और प्रयत्नपूर्वक ही बोले तो वे पाप से नहीं बंधते हैं। ऐसा जानकर साधुओं को अपने पद के अयोग्य वस्तु छोड़कर, योग्य में भी निर्ममता का अभ्यास करते रहना चाहिये ॥९९।। आत्मा में क्या-क्या है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं-- अन्वयार्थ-(आदा खु मज्झ णाणे मे सणे चारते य आदा) निश्चित ही ज्ञान में मेरी आत्मा है, दर्शन और चारित्र में मेरी आत्मा है । (पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे आदा) प्रत्याख्यान में आत्मा है तथा संवर और योग में भी मेरा आत्मा है। टोका--निश्चय से स्वसंवेदनज्ञान में अथवा केवलज्ञान में मेरी आत्मा है। सर्व वस्तुओं के सत्तावलोकन दर्शन में या तत्त्वार्थश्रद्धानरूप क्षायिक सम्यग्दर्शन में १. मूलाचार । २. यह गाथा मूलाचार अ० २ में भी है ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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