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________________ २८७ नियमसार-प्राभूतम् आलंबणं च-ममात्मा आलंबनं च, न अन्यत्किमपि हस्तावलंबनं ववाति । अत एव अवसेसं च वोस्सरे-अवशेषं सर्व चाहं व्युत्सृजामि विधिवत् अभिप्रायपूर्वकं त्यागं करोमि॥ उक्तं च मूलाचारे-- त्थि भयं मरणसम, जम्मणसमयं ण विज्जदे टुक्खं । अम्भणमरणादक, छिवि मत्ति सरीरादो ॥ सर्वमपि आरंभपरिग्रहं त्यक्त्वा विगंबरो मुनिः संयमोपकरणं मयूरपिच्छस्य पिच्छिकाम्, शौचोपकरणं काष्ठस्य कमंडलुम्, ज्ञानोपकरणं शास्त्रं चादवानः, यदन्यत्किमपि स्वपदयोग्यं वस्तु, यथा- भूमिपाषाणफलकतृणमयं स्तरम्' इत्यादि गहन रत्नत्रयसाधमशरीररक्षार्थ श्रावाद हा मासुकमाहार साति, तैरेव प्रवत्तायां शंका-- तो फिर क्या करना चाहिये ? समाधान-मेरी आत्मा ही आलंबन है, इससे अतिरिक्त अन्य कोई मुझे हाथ का अवलंबन देने वाला नहीं है । इसीलिए आत्मा से अतिरिक्त अन्य सभी का में विधिवत् अभिप्रायपूर्वक त्याग करता हूँ। मूलाचार में कहा है। "मरण के समान कोई भय नहीं है और जन्म के समान कोई दुःख नहीं है। शरीर से जो ममत्व है, वह जन्म-मरण को कराने वाला है, अत: इस ममत्व को ही छोड़ो। ___ दिगंबर मुनिराज संपूर्ण ही आरंभ-परिग्रह को छोड़कर संयमोपकरण में मयूर पंखों की पिच्छिका को, शौचोपकरण में काष्ठ के कमंडलु को और ज्ञानोपकरण के लिये शास्त्र को ग्रहण करते हैं। इनसे अतिरिक्त भी अन्य कुछ भी वस्तु जो कि अपने पद के योग्य है, जैसे कि भूमि, पाषाण, पाटे या तृण घासमयी संस्तर को, ऐसी ही अन्य कुछ भी बस्तुओं को ग्रहण करते हुए रत्नत्रय के साधन स्वरूप इस शरीर की रक्षा के लिये श्रावकों के द्वारा दिये गये प्रासुक आहार को ग्रहण करते हैं। उन्हीं श्रावकों के द्वारा दी गई वसतिका में निवास करते हैं, फिर भी इनसे १. मलाचार अध्याय ३ । २. मुलाचार अध्याय २, गाथा ३८ की टीका ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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