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________________ ३४० नियमसार - प्राभूतम् चतुर्ज्ञानधारिश्रीगौतमस्वामिनः स्वयं स्वमात्मानं सम्बोधयंत ऊचु:जो सारो सम्बसारेसु सो सारो एस गोयम । सारं ज्ञानं ति णामेण सध्धं बुद्धेहि देसिवं ॥ अस्मिन् दुमकाले यद्यपि शुक्लध्यानं नास्ति, तथापि धर्म्यध्यानमस्त्येव । उक्तं च मोक्षप्राभूते अज्जवि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं । लोयंतिय देवतं तत्थ चुदा जिव्बुद जति ॥ इति न भवता सनी ॥ ११९ ॥ — निर्विकल्पारमध्यानेनैव नियमः सिद्धयतीति कथमंति सूविर्याः - सुहअसुहवयणरयणं, रायादी भाववारणं किच्चा | अप्पाणं जो झायदि, तस्स दु नियमं हवे नियमा || १२०|| चार ज्ञानधारी श्री गौतमस्वामी ने स्वयं अपने आत्मा को सम्बोधित करते हुये कहा है । जो सर्वसारों में भी सार है, वह सार हे गौतम! ध्यान इस नाम से ही है, ऐसा सभी बुद्ध-ज्ञानी महापुरुषों तीर्थंकरों ने कहा है 17 इस दुःषम काल में यद्यपि शुक्ल ध्यान नहीं है, फिर भी धर्मध्यान तो है ही । सोही मोक्षप्राभृत ग्रंथ में कहा है - आज भी रत्नत्रय से शुद्ध मुनि आत्मा का ध्यान करके इन्द्रपद को और Maine देव के पद को प्राप्त कर लेते हैं, पुन: वहाँ से च्युत होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं । ऐसा निश्चय करके आपको धर्मध्यान का अभ्यास करते रहना चाहिए ।। ११९ ।। निर्विकल्प आत्मा के ध्यान से ही नियम सिद्ध होता है ऐसा आचार्यदेव कह रहे हैं— अन्वयार्थ - ( सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा) शुभ अशुभ वचनों की रचना को और रागादि भाव को छोड़ करके (जो अप्पाणं झार्यादि) जो मुनि आत्मा को ध्याते हैं, (तस्स दु णियमा नियम हवे ) उनके नियम से नियम होता है ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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