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________________ नियमसार - प्राभृतम् ३३० य लोहं - सम्यक्प्रकारेण तुध्यति हृष्यति इति संतोषस्तेन लोभं च । खुए चहुविहफसाए जयदि बहु इनात्युविद् जयति महामुनिः । तद्यथा- अष्टविधकर्मणां मूलकारणं मोहनीथकर्म एव तस्मिन् दर्शनमोहस्य त्रिभेदाः, चारित्रमोहस्य पंचविशतिभेदाश्च सन्ति । एभिः कषायैरेव जीवः स्थितिबंधमनुभागबंधं च करोति, कषायोक्यसहितेनेव कर्मोक्यनिमित्तेन जीवस्यासंख्यातलो कपरिमाणभावा जायन्ते । उक्तं च वातिककारदेवें: "जीवस्थासंख्येयलोकपरिमाणाः परिणामविकल्पाः, अपराधाश्च तावन्त एव न तेषां ताद्विकल्पं प्रायश्चित्तमस्ति । व्यवहारनयापेक्षया पिंजीकृत्य प्रायश्चित्तविधानमुक्तम् ।' "आत्मन्यपराधं चिरमनवस्थाप्य निकृतिभावमन्तरेण आलय वृजुबुद्धघा दोषं निवेदयतो न ते दोषा भवन्स्यन्ये च । संयतालोचनं द्विविषयमिष्टमेकान्ते, संयतिकालोचनं श्रयाभयं प्रकाशे*। से तुष्ट होना - - हर्षित होना संतोष हैं। महामुनि मार्दव से मान को, आर्जव से माया को और संतोष से लोभ को, इस प्रकार इन चारों कषायों को जीत लेते हैं। इसी का स्पष्टीकरण करते हैं- आठ प्रकार के कर्मों का मूलकारण मोहनीय कर्म ही हैं । उसमें दर्शनमोह के तीन भेद हैं और चारित्रमोह के पच्चीस भेद हैं। इन कषायों से ही यह जीव स्थितिबंध और अनुभागबंध करता है । कषायों के उदय से सहित ही कर्मोदय के निमित्त से जीव के असंख्यात लोक परिमाण भाव होते हैं । वार्त्तिककार श्री अकलंकदेव ने कहा भी है जीव के परिणामों के भेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं, अपराध भी उतने ही हैं, उनके लिये उतने भेदरूप प्रायश्चित्त तो हैं नहीं । अतः यहाँ पर व्यवहार नय की अपेक्षा से संक्षिप्त करके प्रायश्चित्त के ( नव) भेद कहे गये हैं । -- अपनी आत्मा में अपराध को बहुत काल तक न रखकर मायाचार के बिना बालक के समान सरल बुद्धि से गुरु के समक्ष दोष को निवेदित करते हुए शिष्य के पुनः वे दोष नहीं होते हैं और अन्य दोष भी नहीं होते हैं । मुनि को एकांत में गुरु के पास आलोचना करना इष्ट है और आर्यिका १. तत्त्वार्थवात्तिक अ० ९ सूत्र २२ के वार्तिक में । २. " נ ,f 打 "
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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