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नियमसार-प्राभृतम् भक्तिः श्रद्धा प्रोसिन परिहर्तध्या भवद्धि इ प्रमादः कर्म ॥१९॥
कस्य निमित्तमिदं शास्त्रमिति जिज्ञासापूर्तये ग्रन्थमुपसंहर्तुकामाः श्रीकुन्दकुन्ददेवा ब्रुवन्तिणियभावणाणिमित्तं, मए कदं णियमसारणामसुदं । णच्चा जिणोवदेस, वावरदोसजिम्मुकं ॥१८७॥
णियभावणाणिमित्तं-निजशुद्धबुद्धनित्यनिरंजनज्ञानदर्शनसुखबीर्यस्वरूपस्यास्मतत्त्वस्य भावना पुनः पुनः चिन्तनमभ्यास आराधना उपासना वा, तन्निमिसं तदर्थमेव । णियमसारणामसुदं-इदं नियमसारनाम श्रुतं शास्त्र मया कृतम् न चान्यकृत
१९. अवह कर्म---अकृत्रिम द्वीप समुद्र आदि का प्रगट कर्म ।
इस प्रकार आज से पच्चीस सौ ग्यारह वर्ष पूर्व सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् महावीर ने सर्व जीवों की इन आगति-गति आदि को तथा तीन सौ तैतालीस घन. राज प्रमाण इन तीनों लोकों को स्पष्ट जानते-देखते हुये तथा इस पृथ्वी तल पर श्रीविहार करते हुये उन्होंने मुनियों के लिये पाँच महाव्रत आदि रूप तथा गृहस्थों के लिये पाँच अणुव्रत आदि रूप समीचीन धर्म का उपदेश दिया है। वहीं जिनधर्म आज भी जयशील है और इस काल के अंततक जयशील रहेगा । अन्य लोगों के या धर्मद्रोही, गुरुद्रोहियों के वचन सुनकर इस धर्म से मन नहीं हटाना चाहिये प्रत्युत महापुण्य योग से प्राप्त हुये इस धर्म में सावधान रहकर अपना हित साध लेना चाहिये ।।१८६॥
किसके निमित्त यह ग्रन्थ लिखा है ? ऐसी जिज्ञासा को पूर्ण करने के लिये ग्रन्थ के उपसंहार करने की इच्छा रखते हुये श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं
अन्यवार्थ-(णियभावणाणिमित्तं मए) निज आत्मा की भावना के निमित्त मैंने (पुवावरदोसणिम्मुक्कं जिणोवदेसं णच्चा) पूर्वापर दोष से रहित, जिनेंद्र देव के उपदेश का ज्ञान प्राप्त कर (णियमसारणामसुदं कदं) नियमसार नाम के इस शास्त्र का रचा है।
____टीका-निज शुद्ध बुद्ध नित्य निरंजन ज्ञान दर्शन सुन वीर्य स्वरूप अपने आत्मतत्व की भावना, पुनः पुन: चितन, अभ्यास, आराधना अथवा उपासना इसके निमित्त, अर्थात् इस आत्मा की भावना के लिये ही यह नियमसार नाम फा शास्त्र