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________________ - p इस नियमसार ग्रन्थ में सर्व गाथायें १८७ हैं छयत्तर, बियासी और उनतीस गाथाओं से इसमें मैंने तीन महाधिकार माने हैं जिनके नाम हैं-व्यवहार मोक्ष मार्ग, निश्चय मोक्षमार्ग और मोक्ष । जीव, अजीव आदि से इसमें बारह अधिकार हैं। तथा टीका में प्रत्येक अधिकार के अन्तर्गत अधिकार करने से मैंने सैंतीस ३७ अंतराधिकार किये हैं। अनंतर श्री कुन्दकुन्ददेव को नमस्कार करके बोर संवत् २५११ में मगसिर बदी सप्तमी के दिन (दि. १५ नवम्बर, १९८४) प्रातःकाल मैंने इस टीका को पूर्ण किया है। पुनः अन्तिम पत्रिवें श्लोक में त्रैकालिक सर्व सिद्धों को नमस्कार करते हुये सिद्धि की कामना की है। इस दिन संघस्थ मोतीचन्द्र, माधुरी आदि श्रावक, श्राविकाओं ने इभ ग्रन्थ की पूजा करके सभा में बिनयांजलि समर्पित करके "सरस्वती वंदना समारोह ' मनाया पुनः ग्रन्थ को पालको में विराजमान करा बाजे के साथ शोभा यात्रा निकाली और उत्सव किया। इसके बाद मैंने प्रशस्ति लिखते हुये मगसिर सुदी दूज (२४ नवम्बर, १९८४) को मध्याह्न में प्रशस्ति पूर्ण को है । वैशाख दूज से ही इसका हिन्दी अनुवाद भी मैंने प्रारम्भ कर दिया था सो मगसिर सुदी पूर्णिमा (आठ दिसम्बर १९८४) को ही वह अनुवाद भी पूर्ण किया है। इस प्रकार इस नियमसार नथ की स्थाद्वाद चन्द्रिका टीका को मैंने छह वर्ष, छह मास और चौंतीस दिनों में पूर्ण किया है। वैसे प्रारम्भिक वर्ष में ग्यारह माह एवं सन् ८४ में आठ माह एसे कुल उनोस माह तक इसका लेखन कार्य किया है मध्य में शेष दिनों व्यवधान रहा है । वैशाख मास की अक्षय तृतीया तो सर्व श्रेष्ठ है ही वैशाख सुदो दशमी को भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्रगट हुआ था । इस ग्रन्थ की पूर्ति का मगसिर मास भी बहुत ही उत्तम माना गया है। "मासानां मार्गशीर्षोऽहम्" गीता में ऐसा श्रीकृष्ण ने कहा है। मगसिर वी दशमी को भगवान् महावीर ने दीक्षा ग्रहण की थी। इस टीका को लिखते हुये मैंने श्लोकवातिक, तिलोयपण्णत्ति आदि ६. ग्रन्थों के आधार लेकर यथास्थान उनके उद्धरण दिये हुये हैं इसलिये इस टीका की प्रमाणता स्वतःसिद्ध है क्योंकि मेरा निजी मंतव्य कुछ भी नहीं है जो कुछ मैंने पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों का स्वाध्याय करके ज्ञान प्राप्त और गुरुपरम्परागत, दीक्षा गुरु, विद्यागुरु आदि के मुख से सुना है वहीं सब इसमें अनुबद्ध किया है। फिर भी प्रमाद' या अज्ञान से यदि किंचित मात्र भी आगम विरुद्ध प्रतिभासित हो तो साधुगण और विद्वज्जन मुझे सूचित करें मैं पुनः उस पर विचार करूंगी। इस टीका में एकांत दुराग्रह को दूर कर उभय नयों में परस्पर मैत्री स्थापित की गई है अतः यह ग्रन्थ सर्व अध्यात्म प्रिय जनों को प्रिय होगा ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है । मैंने इस बात को प्रशस्ति में स्पष्ट कर दिया है कि इस टोका को लिखने में मेरी यही भावना रही है कि वर्तमान में मरी आत्मविशुद्धि और मन की एकाग्नता हो तथा भविष्य में स्वात्मसिद्धि होवे। इसके पठन, पाठन, मनन, चितन और उपदेश करने वालों को भी सम्यग्ज्ञान और चारित्र का लाभ मिले यही मेरी शुभ भावना है । वैशाख मुक्ला ३ वीर नि० सं० २५११ आर्यिका श्री ज्ञानमती माता जी दि० २४-३-१९८५ हस्तिनापुर .
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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