SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना आ० कुन्दकुन्द की आध्यात्मिक रचनाओं में नियमसार ग्रन्थ भी उनकी अपनी एक आध्यात्मिक रचना है । यद्यपि नियमसार की उतनी प्रसिद्धि नहीं है जितनी समयसारादि ग्रन्थों की है फिर भी नियमसार अपने ढंग की अनूठी ही रचना है। आचार्यश्री ने नियम शब्द का अर्थ लिखा है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र का परिपालन और सार का अर्थ किया है विपर्यय विसंगतियों रहित उक्त रहनाय का निर्वाह करना। अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का जो वास्तविक रूप है तदनुरूप प्रवृत्ति का नाम नियममार है। इस नियमसार को उन्होंने दो रूप में बाँट दिया है। ये रूप हैं मार्ग और मार्ग का फल । मार्ग का अर्थ है सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र का पालन और फल अर्थ है मोक्ष-अर्थात् जो कार्य जिस उद्देश्य से किया जाता है उस उद्देश्य को सिद्धि फल है और जो कार्य किया जाता है उसका नाम मार्ग है जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वामी ने लिखा है "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः ।" मतलब यह कि आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने आध्यात्मिक ग्रन्थ नियमसार में इन दोनों का ही निरूपण किया है। इन दोनों के निरूपण में उन्होंने व्यवहारदृष्टि और निश्चयदृष्टि दोनों को अपनाया है। आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं में यह विशेषता है कि जब वे व्यवहार का आधय लेकर किसी तत्त्व का निरूपण करेंगे तो उसके बाद व्यवहार विरोधी निश्चयदृष्टि से भी उसके स्वरूप का व्याख्यान करेंगे । समयसार में तो यह सब कुछ है ही लेकिन नियमसार में भी उन्होंने इसी दृष्टि को ही अपनाया है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के आधारभूत सात तत्वों के उपदेश को उन्होंने दो अधिकारों में निरूपण किया है। पहला अधिकार जीवाधिकार है और दुसरा अधिकार अजीवाधिकार है। जीवाधिकार में मात्र जीवतत्त्व का निरूपण है और अजीवाधिकार में पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन पांच तत्त्वों का निरूपण किया है । इन दोनों ही अधिकारों में व्यवहारदृष्टि को प्रधान करके उक्त सब निरूपण हैं । पुनः उसके बाद हो उनको दृष्टि शुद्ध निश्चयनय पर आ जाती है अतः तीसरा अधिकार शुद्धजीवाधिकार है उसका वर्णन करते हुये आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है जीत्रादिविहिततत्वं हेयमुपादेयमप्पणो अप्पा कम्मोपाधिसमुठभदाणपज्जाएहि बदिरित्तो ॥३८।। अर्थ-जिन जीवादि तत्त्वों का वर्णन किया गया है वे सब हेय हैं । केबल एक अपनी आत्मा ही उपादेय है । जो आत्मा (निश्चयदृष्टि से) कर्मोपाधि से उत्पन्न गुण पर्यायों से रहित है । यहाँ जिन तत्वों को हेय बताया है उनमें अजीव द्रव्य तो हेय है ही किन्तु जीव तत्व को भी हेय बता दिया है इससे स्पष्ट है कि आचार्य कोपाधि से रहित (शुद्ध) शुद्ध आत्मा को ही निश्चयनय की अपेक्षा से जीव मानना चाहते हैं फिर भी उस शुद्ध आत्मा को जीव नहीं कहना चाहते । क्योंकि आत्मा को 'जीव' शब्द का प्रयोग व्यवदारनय की अपेक्षा से होता है। "तिक्काले चतुपाणा। इत्यादि गाथा के अनुसार द्रव्यभाव प्राणों से जीनेवाले को ही जीव कहा जाता है इसलिये आचार्य का कहना है कि जीवतत्त्व उपादेय नहीं, आत्मा ही उपादेय है। यहीं उनकी दाष्ट "अतति-गच्छत्तिजानाति इत्यात्मा" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो मात्र जानता है वही आत्मा है । कि आत्मा का
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy