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________________ -१४ जीने मरने के साथ कोई सम्बन्ध नहीं इसलिये बह आत्मा ही उपादेय है, जीव जो जीता मरता है वह उपादेय नहीं है । आगे चल कर वे अपनी निश्चयदष्टि का स्पष्ट रूप से उल्लेख करते हैं। "जारसिया सिद्धप्पाभवमल्लिया जीवा तारिसा होति जरामरणजम्ममुक्का अट्टगुणालंकियजीवा ॥४७॥ अर्थात्-जिस प्रकार सिद्ध भव में लोन नहीं है उसी प्रकार जीव भव से रहित हैं (शुद्ध द्रव्याथिक नय से) अतः दोनों ही जरामरण जन्म से रहित आठ गुणों से अलंकृत हैं। ___ "असरोरा अविणासा अणिदिया णिम्मला विसुद्धप्पा जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिद्धि' णेया ॥४८॥ अर्थ-जिस प्रकार शरीर रहित, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल विशुद्धात्मा सिद्ध भगवान् लोक के अग्रभाग में विराजमान हैं उमी प्रकार (शुद्ध द्रव्याथिकनय से) संसारी प्राणी भी है। इस प्रकार उक्त दोनों गाथाओं में आचार्य ने अपनी निश्चयदृष्टि को खुलकर सामने रख दिया है। फिर भी कोई भ्रम में न पड़ जाय कि आचार्य प्रमाणभूत तो निश्चयदृष्टि को मानती है उस भ्रम के दूर करने के लिये उन्होंने अपनी गाथा ४२ में लिखा है-पहले जिनभावों का वर्णन किया गया है वह सब व्यवहारनय को लेकर वर्णन किया है और सिद्ध समान जो संसारी जीवों का वर्णन किया गया है वह शुद्धनय की अपेक्षा से वर्णन है। इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी सभी रचनाओं में व्यवहारनय और शुद्धनय को अपनाया है भले ही वह समयसार हो या नियमसार । आगे चारित्र अधिकार में भी उन्होंने इसी क्रम को अपनाया है, पहले व्यवहार चारित्र का वर्णन किया जिसमें पाँच महानत और पाँच समितियों का व्याख्यान है बाद में निश्चयचारित्र का वर्णन है जिसमें निश्चय षड़आवश्यक का व्याख्यान है। अन्त में शुद्धोपयोगाधिकार का विवेचन है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक चारित्रभूत नियम का दोनों दृष्टियों से निर्विरोव अतः सारभूत विवेचन किया गया है यही नियमसार का अभिप्राय है। अभी तक इस ग्रन्थ की मात्र एक ही टोका संस्कृत में उपलब्ध थी जो आचार्य पमप्रभमलधारीदेव रचित है। इसी टीका का आश्रय लेकर ब्र. शीतलप्रसादजी ने हिन्दी टीका लिखी है। लेकिन स्वाध्याय-प्रेमी बन्धुओं को अब यह जानकर प्रसन्नता होगी कि इस ग्रन्थ का एक नवीन संस्कृत टीका पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माता जी ने लिखी है जिसका स्याद्वाद चन्द्रिका है। प्रस्तुत नियमसार ग्रन्थ इसी टीकायुक्त पहली बार ही प्रकाशित हुआ है। मूल ग्रन्थ को अपेक्षा उसकी टोका करने में टीकाकार को जो श्रम, अनुसन्धान, शब्द और अर्थ की सङ्गत्ति और तात्पर्य की ओर ध्यान देना पड़ता है वह अत्यन्त कष्टसाध्य है। इसमें संस्कृत टीका करना तो और भी कठिन है, वहाँ प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति का ध्यान रखना पड़ता है साथ ही मलग्रन्थ रचयिता के अभिप्राय को भी टटोलना पड़ता है, ग्रन्थान्तरों के उद्धरण भी खोजने पड़ते हैं। स्याद्वाद चन्द्रिका टीका को देखकर लगता है कि पू० माताजी ने इसमें कठोर श्रम किया है। टोका में वे सभी बातें हैं जो प्रबुद्ध टीकाकार को रखना चाहिए । टीका की विशेषता है खण्डान्वय एवं दंडान्वय को लेकर पहले तो सामान्य अर्थ किया गया, बाद में उसी गाथा का विस्तार से अर्थ १. 'संसियों' इति पाठः सभाव्यते ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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