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________________ नियमसार-प्राभृतम् स्थावादचन्द्रिका एरिसभेदभासे-ईदृशशरीरात्मनो भेंदविज्ञानस्यान्यासं कुर्यति सति अथमात्मा महामुनिः, मज्झत्थो होदि-मध्यस्थो भवति, सुखदुःखजीवनमरणलाभादिषु समभावपरिणतो भवति । तेण चारित-तेन निमित्तेन वीतरागचारित्रं जायते । तं दढकरणिणि मत्तं-तच्चारित्रमात्मनि दृढीकरणार्थम्, अहं पडिकमणादी पवक्खामिप्रतिक्रमणादि निश्चयप्रतिक्रमणनिश्चयप्रत्याख्यानाविक्रिया प्रवक्ष्यामि । इतो विस्तरः व्रतेषु संभूतातिचारादिदोषनिवृत्यर्थ 'मिच्छा मे दुक्कडं' इत्यादिदण्डकसूत्रोच्चारणपूर्वकं यक्रिया क्रियते साधुभिः तत्प्रतिक्रमणं नाम । अस्य प्रमुखभेदाः सप्त सन्ति । उक्तं च मूलाचार पडिकमणं देवसियं रादिय इरियापचं च बोधावं । पक्खिय चादुम्मासिय संयच्छरमुत्तमटुं च ॥ अभ्यास करने से मुनि मध्यस्थ होते है, (तण चारित) इससे दोतराग चारित्र होता है, (तं दढकरणणिमित्तं) उस वीतराग चारित्र को दृढ़ करने के लिए (पडिकमणादी पवक्खामि) प्रतिक्रमण आदि को कहूँगा। टीका-शरीर और आत्मा का ऐसे भेदविज्ञान का अभ्यास करते हुए ये महामुनि सुख-दुःख, जोबन-मरण, लाभ-अलाभ आदि में समभाव से परिणत होकर मध्यस्थ होते हैं । इससे वीतराग चारित्र होता है। उसो चारित्र को आत्मा में वृढ़ करने के लिए मैं निश्चयप्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान आदि क्रियाओं को कहूँगा । इसी का विस्तार कहते हैं व्रतों में उत्पन्न हुए अतिचार आदि दोषों को दूर करने के लिए 'मेरा दुष्कृत मिथ्या होवे' इत्यादि दण्डक-सूत्रों का उच्चारण करते हुए साधु जो क्रिया करते हैं, उसे 'प्रतिक्रमण' कहते हैं । इसके प्रमुख भेद सात हैं । सो ही मूलाचार में कहा है देवसिक, रात्रिक, ईपिथ, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ-ये प्रतिक्रमण के सान भेद हैं। अन्य ग्रन्थ-अनगारधर्मामृत में सात १. मूलाचार, अध्याय ५।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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