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नियमसार-प्राभृतम्
२३२ भायकर्मनोकर्मरहितविभावभावकर्तृत्वशून्यः, चिन्मयचिंतामणिचैतन्यकल्पवृक्षस्वरूपोSखण्डज्ञानज्योति स्वरूपञ्चाहम्-इत्यादिभावनाभिः परमानन्दमालिनि निजशुद्धास्मनि स्थिरत्वं विधातव्यमस्माभिव्यजनैश्चति । 'णाहं णारयभावो' प्रभृतय इमाः पंचगाथाः टीकाकारैः श्रीपदमप्रभमलधारिदेवैः पंचरत्नमिति संज्ञयाभिहिताः । यः कश्चित् भव्यः एतद्रत्नमाला स्थकण्ठे बधाप्ति स सस्वरमन सिद्धकान्तापतिर्भविष्यति ।
एवं ‘णाहं णारयभावो' इत्यादिनारभ्य 'णाहं कोहो माणो' इत्यादिपर्यन्तः पंचभिर्गाथासूत्रभेदभावनाप्रतिपादकः प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः ।।८०-८१॥
अधुना 'एरिसभेवन्भासे' इति गाथामादौ कृत्या 'मोत्तण अहरुई' इत्यादिअष्टगाथासूत्रपर्यन्तं निश्चयप्रतिक्रमणस्य लक्षणं कुर्वन्त्याचार्यदेवाः, तेषु प्रथमं कश्चि. च्छिष्यः पच्छति-- एतादृग्भावनया किं प्रयोजनमिति पृष्टे सति निगदन्ति सूरयः
एरिसभेदभासे, मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं । तं दढकरणणिमित्तं, पडिकमणादी पवक्खामि ।।८।।
कोध, मान, माया, लोभ, द्रव्यकर्म, भावक्रर्म, नोकर्म से रहित, सर्व विभावभाव के कर्तृत्व से रहित, चिन्मय चिन्तामणि स्वरूप, चैतन्य-कल्पवृक्ष स्वरूप और अखंडज्ञानज्योति स्वरूप हूँ, इत्यादि भावनाओं के द्वारा हम सभी भव्य जीवों को परमानंद स्वरूप निज शुद्धात्मा में स्थिरता करनी चाहिये ।
__ "णाहं णारयभावा" इत्यादि रूप इन पाँच गाथाओं को टीकाकार श्री पश्मप्रभमलधारीदेव ने "पाँच रत्न' नाम से कहा है। जो कोई भव्य जीव इस रत्नमाला को अपने कंठ में पहनेगा, वह शीघ्र ही मुक्ति लक्ष्मी का स्वामी हो जायेगा।
___ इस प्रकार "णाहं णारयभावो" इत्यादि बाक्य से प्रारंभ करके "णाहं कोहो माणो" इस गाथा पर्यंत गाथासूत्रों से भेद-भावना का प्रतिपादक यह पहला अंतराधिकार पूर्ण हुआ ।।८०-८१।।
अब "एरिसभेदभासे" इस गाथा को आदि में करके "मोत्तूण अट्ठरुदं" इस गाथा पर्यंत आठ गाथा-सूत्रों में श्री आचायंदेव निश्चयप्रतिक्रमण का लक्षण कहते हैं ! उनमें भी सर्वप्रथम शिष्य प्रश्न करता है कि--
इस प्रकार की भावना से क्या प्रयोजन है ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं
अन्वयार्थ (एरिसभेदभासे मज्झत्यो होदि) इस प्रकार की भेदभावना के