________________
२६८
नियमसार-प्राभूतमे स्थाद्वावचन्द्रिका
उत्तमअळं आदा-त्रैलोक्येषु त्रैकाल्येषु च सर्वोत्तमः पदार्थ आत्मा एव, व्याकरणेऽपि 'अहं आवां वयम्' एषां उत्तमपुरुषसंज्ञा दृश्यते । तम्हि ठिदा मुणिवग कम्म हणदि-तस्मिन् आत्म-स्वरूपे सर्वसंकल्परूपविकल्परूपममकाराहंकारजितनिविकल्पसमाधौ स्थिता ये मुनिवराः श्रुतकेवलिनोवा ते कर्माणि मोहज्ञानदर्शनावरणान्तरायनामानि धातिकर्माणि नंति, तम्हा दु झाणमेव हि उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं-तस्मात् हेतोस्तु निश्चयधर्म्यध्यानं शुक्लध्यानमेव खलु निश्चयेन उत्तमार्थस्य प्रतिक्रमणं भवति ॥१२॥
तथाहि-व्यवहारनयापेक्षया भगवती-आराधनाग्रन्थे कथितं यत् एकस्य मुनेः सल्लेखनासमये अष्टचरवारिंशन्मनिभिर्भवितव्यम् ।
__तदानीं सल्लेखनानिरतः क्षपकः सानिर्यापकाचार्यस्य सकाशे यावज्जीवं चतुबिधाहारं त्यक्त्वा बृहत्प्रतिक्रमणं पठित्वा श्रुत्वा वा सर्वानपि दोषान् प्रतिक्रामति, तदेवोत्तमार्थप्रतिक्रमण भण्यते ।
उक्तं चानगारधर्मामृते
टोका-~-तीनों लोकों और तीनों कालों में सर्वोत्तम पदार्थ आत्मा ही है । व्याकरण में भी 'अहं, आवां और वयं' इनकी उत्तमपुरुष संज्ञा है । जो मुनिराज अथवा श्रुतकेवली उस आत्मस्वरूप में सर्वसंकल्प-विकल्परूप ममकार और अहंकार से वर्जित निर्विकल्प समाधि में स्थित होते हैं, वे मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय नामवाले धातिकर्मों का नाश कर देते हैं । इसलिए निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही निश्चय से उत्तमा का प्रतिक्रमण होता है।
उसी को कहते हैं--व्यवहारनय से भगवती आराधना ग्रन्थ में कहा गया है कि एक मुनि की सल्लेखना के समय अड़तालीस मुनि होने चाहिये । उस समय सल्लेखना में तत्पर जो क्षपक साधु निर्यापकाचार्य के पास में जीवन-पर्यंत के लिए चार प्रकार के आहार का त्याग करके बृहत् प्रतिक्रमण पढ़कर अथवा सुनकर संपूर्ण दोषों का प्रतिक्रमण करते हैं वही 'उत्तमार्थ प्रतिक्रमण' कहलाता है।
अनगारधर्मामृत में कहा भी है---