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अथ परमसमाधि अधिकारः वीतरागचारित्राविनाभाविपरमसमाधिपरिणतेभ्यो द्वापंचाशत्तरचतुर्दशशतसंख्येभ्यः श्रीगणधरदेवेभ्यो नमः । .. अथ . व्यवहारधर्म्यध्यानबलसाध्य-परमसमाधिनामधेयो नवमोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्र द्वादशगाथासूत्रेषु तावत् 'वयणोच्चारणकरियं' इत्यादि गाथासूत्रमावौ कृत्वा द्वाभ्यां सूत्राभ्यां परमसमाधिलक्षण व्याख्याय, कि काहदि वणवासो' इत्यादि रूपेणकेन सूत्रेण समता परिणाभनव परमस्वास्थ्यसिद्धिारात प्रतिपादनं क्रियते। तदनु "विरको सन्वसायज्जे' इत्यादिगाथासूत्रेण प्रारभ्य नवमाथासूत्रैः सामायिकस्य स्थायित्वं कथ्यत इति द्वाभ्यामन्तराधिकाराभ्यां समुदायपातनिका सूच्यते । अधुना परमसमाधिः कदा फस्य केन भावन भवेदिति प्रश्न सति प्रत्युत्तरं प्रयच्छन्ति श्रीकुदकुंददेवाः
वयणोच्चारणकरियं, परिचत्ता वीयरायभावेण . .. . जो झायदि अप्पाणं, परमसमाही हवे तस्स ॥१२२॥
वीतरागचारित्र के बिना नहीं होने वाली जो परमसमाधि है, उससे परि'णत हये चौदह सौ बावन परिमाण गणधरदेवों को मेरा नमस्कार होवे।। - अब व्यवहार धर्मध्यान के बल से साध्य परमसमाधि नाम का नकमा अधिकार प्रारंभ किया जा रहा है। उसमें बारह माथासूत्रों में सर्वप्रथम 'वयणोच्चारणकिरियं' इत्यादि गाथासूत्र कों आदि में करके दो सूत्रों द्वारा परमसमाधि का लक्षण कहकर, 'कि काहदि वणवासो'. इत्यादि रूप एक सूत्र के द्वारा समता परिणाम से हो परम स्वास्थ्य की सिद्धि होती है-ऐसा प्रतिपादन करेंगे। पुन: "विरदो सवसावज्जे" इत्यादि गाथासूत्र से प्रारंभ करके नब गाथासूत्रों द्वारा सामायिक के स्थायित्व को कहेंगे। इस प्रकार दो अंतराधिकारों द्वारा यह समुदायपातनिका सूचित की गई है। ..
___ अब परमसमाधि कब किनको किन भावों से होती है ? ऐसा प्रश्न होने पर श्री कुन्दकुन्ददेव उत्तर देते हैं-- ..
अन्वयार्थ— (वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता) वचनों के उच्चारण रूप क्रिया को छोड़कर (जो वीयरायभावेण अप्पाणं झायदि) जो वीतराग भाव से