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नियमसार-प्राभृतम् यदास्माभिद्विविषोऽपि मार्गो लप्स्यते, तवैव वयं धन्याः पुण्यवन्तश्च भविष्याम इति भावनापि भादयितन्या।
तात्पर्यमिदम्-नियमेन यत्कार्य कर्तव्यं वर्तते स नियमशब्दवाच्यः, तत्तु ज्ञानदर्शनचारित्रमेव । तस्माद् विपरीतमपि मोक्षमार्गो न स्यात्, अतस्तेन सह सारमिति वचनम् उच्यते ॥३॥
अधुना प्रकारान्तरेण नियमस्य लक्षणं तस्य फलं च कथयन्तो भेदरत्नत्रयस्य साफल्यमपि प्रकटगन्नः भौटुमानु मायन्ताह...
णियमं मोक्खउवायो तस्स फलं हवदि परमणिवाणं । एदेसि तिण्हं पि य पत्तेयपरूवणा होदि ॥४॥
णियमं मोक्ख उवायो तस्स फलं परमणिव्वाणं वदि-नियमो मोक्षोपायस्तस्य फलं परमनिर्वाणं भवति । "ननु मार्गो मोक्षोपायस्तस्य फलं निर्वाणमिइति द्वितीयसूत्रे प्रोक्तम्, अत्र तु "नियमो मोक्षोप्रायस्तस्य फलं निर्वाणं" कथमेतत् ? उच्यते; पढ़कर श्रावकों को भी श्रद्धान करना चाहिए कि 'जब हमें दोनों प्रकार का भी यह मार्ग प्राप्त हो जावेगा तभी हम धन्य होंगे और पुण्यवान् होंगे' इस प्रकार भावना भी भाते रहना चाहिए।
तात्पर्य यह हुआ कि नियम से जो करने योग्य कर्तव्य है, वह नियम शब्द से वाच्य है, वह दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही है। इनसे विपरीत मिथ्यादर्शनादि भी मोक्षमार्ग न हो जावें, इसलिए इस नियम के साथ 'सार' शब्द को कहा है।
__ अब दूसरे प्रकार से नियम का लक्षण और उसका फल कहते हुए तथा भेदरत्नत्रय की सफलता को भी दिखलाते हुए श्री कुन्दकुन्द भगवान् कहते हैं
___अन्वयार्थ-(मोक्खउवायो णियम) मोक्ष का उपाय नियम है, (परमणिवाणं तस्स फलं हवदि) परमनिर्वाण उसका फल है, (एदेसि तिण्हं पि य पत्तेयपरूवणा होदि) इन तीनों में से अब प्रत्येक का वर्णन करते हैं ।
स्याद्वादचन्द्रिका नियम से मोक्ष का उपाय लेना और उसका फल परम निर्वाण है । दूसरी गाथा में मोक्ष के उपाय को मार्ग कहा है और उसका फल निर्वाण कहा है। यहाँ चतुर्थ गाथा में नियम को मोक्ष का उपाय कहा है और उसके फल को निर्वाण कहा है। इन दोनों कथन में इतना ही अंतर है कि वहाँ