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नियमसार-प्राभृतम् तत्र मार्गस्य प्राधान्यम्, अत्र तु नियमस्य प्राधान्यम्, एतदेवान्तरं न चान्यत् । किञ्च मार्ग एव नियमो नियम एवं मार्ग इति । तृतीयगाथासूत्रेऽपि नियमस्य तदेव लक्षणं यन्मार्गस्य । यथा--'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति ।
इतो विम्तरः-कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः', अनन्तचतुष्टयाभिव्यक्तिस्वभावो था । उक्तं च श्रीब्रह्मदेवसूरिणा--
___ 'यद्यपि सामान्येन निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलङ्कस्याशरोरस्यात्मनः आत्यन्तिकस्वाभाविकाचिन्त्याद्भुतानुपमसकलविमलकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणास्पदमव - स्थान्तरं मोक्षो भण्यते, तथापि विशेषेण भावच्यरूपेण द्विधा भवति । सर्वस्य द्रव्यभावरूपमोहनीयादिधातिचतुष्टयकर्मणःक्षयहेतुनिश्चयरत्नत्रयात्मककारणसमयसाररूपो य आत्मनः परिणामः स भावमोक्षः । अयोगिधरमसमये टवोत्कीर्णशबुद्धकस्वभावमार्ग की प्रधानता है और यहां पर नियम शब्द की प्रधानता है। दूसरी बात यह है कि मार्ग ही नियम है और नियम ही मार्ग है। तीसरी गाथा में भी नियम शब्द का वही लक्षण किया है, जो कि मार्ग का है। जैसे कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का समुदाय ही मोक्षमार्ग हैं ।
अब विस्तार करते हैं
संपूर्ण कर्मों से छूट जाना मोक्ष है । अथवा अनंत चतुष्टयस्वभाव की प्रकटता हो जाना भी मोक्ष है।
श्रीब्रह्मदेव-सूरि ने कहा भी है--
यद्यपि संपूर्ण कर्ममल कलंक के दूर हो जाने पर शरीररहित आत्मा की आत्यंतिक, स्वाभाविक, अचिन्त्य, अद्भुत और अनुपम ऐसे सकल बिमल केवलज्ञान आदि अनंत गणों के स्थानरूप एक अवस्था विशेष का हो जाना 'मोक्ष' कहा गया है, फिर भी वह मोक्ष भेदरूप से भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष की अपेक्षा दो प्रकार का है-संपूर्ण द्रव्यभावरूप मोहनीय आदि चार घातिया कर्मों के क्षय में हेतु, निश्चयरलत्रयात्मक कारणसमयसार रूप जो आत्मा का परिणाम है. वह भावमोक्ष है। अयोगकेवली भगवान् जो कि टंकोत्कीर्ण शुद्धबुद्ध एक स्वभाववाले
१. तत्त्वार्यसूत्र, अध्याय १० ।