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________________ ५२३ नियमसार-प्रामृतम् निर्वाणसिद्धयोः किमन्सरमिति जिज्ञासायां वदरयाचार्यवर्याःणिव्वाणमेव सिद्धा, सिद्धा णिव्वाण मिदि समुद्दिहा। कम्मविमुक्को अप्पा, गच्छइ लोयग्गपज्जतं ।।१८३॥ णिवाणमेव सिद्धा-निर्वाणं यत् सवेव सिद्धाः । तथा च सिद्धा णिव्वाणंसिद्धा एव निर्वाणं नास्त्यनयोरन्तरं किंचित् । अत्र सिद्धिसिद्धयोरेकत्वं प्रवर्शितं भवति । अथवा सिद्धाः क्व तिष्ठन्तीति प्रश्ने निर्वाणस्थाने सिद्धक्षेत्रे वा तिष्ठन्ति इति भेदकथनं पुनश्चाभेवकथनेन सिद्धाः स्वेषु तिष्ठन्ति, अत्र सिद्धनिर्वाणयोर्भशे नास्ति । कैः कथितम् इत्थम् ! इदि समुट्ठिा -इति अनेन प्रकारेण गणधरदेशाविमहापुरुषः समुद्धिष्टं प्रतिपादितम् । पुनः ऊर्ध्वगमनस्वभावेनायं मुक्तात्मा कुतःपर्यन्तं गच्छति ? कम्मयिमुक्को अप्पा लोयग्गपज्जतं गच्छइ-फर्मभिः विमुक्तोऽयं आत्मा लोकाग्रपर्यन्तं निर्वाण और सिद्धों में क्या अन्तर है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्यदेव कहते हैं अन्वयार्थ--(णिव्वाणमेव सिद्धा सिद्धा णिव्वाणमिदि समुद्दिवा) निर्वाण ही सिद्ध हैं और सिद्ध ही निर्वाण हैं, ऐसा कहा गया है । (कम्मविमुक्को अप्पा लोयागपज्जतं गच्छइ) कर्म से रहित आत्मा लोक के अग्रभाग पर्यंत चला जाता है। टोका--जो निर्वाण है, वे ही सिद्ध हैं और जो सिद्ध हैं, वही निर्वाण है। इन दोनों में कुछ अन्तर नहीं है। यहाँ पर सिद्धि और सिद्ध में एकत्व दिखाया गया है । अथवा सिद्ध कहाँ रहते हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर निर्माणस्थान में अथवा सिद्धस्थान में रहते हैं, यह भेद कथन है 1 पुनः अभेदकथन से सिद्ध भगवान् अपने में ही रहते हैं । यहाँ पर सिद्ध और निर्वाण में भेद नहीं है । ऐसा किसने कहा ? इस प्रकार से गणधरदेव आदि महापुरुषों ने कहा है । शंका-पुनः ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने से ये सिद्ध भगवान् कहाँ तक जाते हैं ? समाधान-कर्मों से मुक्त हुये ये आत्मा परमात्मा लोक के अग्रभाग पर्यन्त
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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