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नियमसार-प्राभृतम् ननु असंख्यातप्रदेशे लोकाकाशे अनन्तानन्तजीवराशिस्ततोऽप्यनातगुणा पुदगलराशिश्च कथमधकाशं लभेत ? सत्यमुक्तं भवता; तथापि नास्ति एष दोषः, आर्षाक्तत्वात्, तद्यथा
__ "ओगाढगादणिचिदो पोग्गलकाएहि सत्रयो लोगो।
सुहुहि बादरेहि अगताणतेहि विविधेहि ॥" अयमत्राभिप्रायः–एकैकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशे सूक्ष्मभावेन परिणताः अनंतानंता हि पुद्गलपरमाणवोऽवतिष्ठन्ते, आकाशस्यावगाहनसामर्थ्यात् । यथा कलिकावस्थायां चंपकपुष्पे सूक्ष्मप्रचयपरिणामात् संकुचितारचंपकपुष्पगंधावयवाः तत्रैवावतिष्ठमानाः वर्तन्ते, पुन: पुष्पे विकसिते जाते स्थूलप्रचयपरिणामात् विनिर्गताश्चंपकगंधावयवाः सर्वदिव्यापिनो दृश्यन्ते । तथैवाल्पेऽपि लोकाकाशे अनंतानंताः पुद्गलाः अवकाशमवाप्नुवन्ति । एवमेव अनंतानंतजीवराशयोऽपि अस्मिन्नेव लोकाकाशे तिष्ठन्ति । यद्यपि एकेन जीयेनापि लोकस्यासंख्येयो भागोऽवगाहाते, तथापि जीवस्य द्वैविध्यात् सर्नेसि होवा लोणाहा पर अवसिष्ठले जानराः सूक्ष्माश्चेति द्विविधा जीवाः, तत्र सूक्ष्मास्तु सूक्ष्मपरिणामावेव सशरीरत्वेऽपि परस्परेण बावरजोवेश्च न
दोनों प्रकार के हैं। इन वचनों से अमूर्तिक द्रव्यों के प्रदेश मुख्य ही हैं, काल्पनिक या औपचारिक नहीं।
__ शंका-असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में अनंतानंत जीब राशि है, और उनसे भी अनंतगुणे पुद्गल राशि है। यह सब कैसे अवकाश (स्थिति) प्राप्त कर सकेगी ?
समाधान-आपका कहना ठीक है, फिर भी यह दोष नहीं है, क्योंकि यह आर्ष में कहा गया है । उसी को देखिये
__ "यह लोक सब तरफ से पुद्गल कायों से और अनंतानंत विविध प्रकार के सूक्ष्म जीवों से--बादर जीवों से खूब ठसाठस भरा हुआ है।"
यहाँ अभिप्राय यह है कि एक-एक भी आकाश प्रदेश पर सूक्ष्मभाव से परिणत हुये अनंतानंत पुद्गल परमाणु ठहरे हुये हैं, क्योंकि आकाश में अवगाहना देने का सामर्थ्य है। जैसे कि कलि का अवस्था वाले चंपा के फूल में संकुचित हैं, वहीं पर ठहरे हुये रह रहे हैं । पुनः जब फूल खिल जाता है, तब वे फूल के सुगंधि १. पंचास्तिकायगाषा, ६४ ।