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________________ नियमसार-प्राभृतम् प्रतिहन्यन्ते इति ते अप्रतिघातशरीराः, बादरा एव सप्रतिघातशरीराः । ततो यत्रकसूक्ष्मनिगोदजीवस्तिष्ठति तत्रानंतानंताः साधारणशरीरधारिणो जीवाः वसन्ति । उक्तं च गोम्मटसारजीवकाण्डे--- "गणिगोदसरीरे जीवा दम्बापमाणदो दिठ्ठा । सिद्धेहि अणतगुणा (सध्वेण बितीदकालंण ।।" बादराणां च मनुष्यादीनां शरीरेषु संस्वेदजसम्मूर्च्छनजादयो बहवो जीवाः अवस्थानं कुर्वन्ति इति नास्त्यवगाहविरोधः । तात्पर्यमेतत्-असंख्यातप्रदेशी अपि अयं आत्मा कर्मोदयवशेन लघु महद्वा यावच्छरीरं लभते तावन्माने एव प्रदेशान् संहृत्य विसर्म्य वा निवसति । यदा तु के अवयव स्थूल प्रचय का परिणमन करके बाहर निकल कर सारी दिशाओं में फैल जाते हैं, इसी प्रकार थोड़े से भी लोकाकाश में अनंतानंत पुद्गल अवकाश प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे ही अनंतानंत जीवराशि भी इसी लोकाकाश में रह जाती है। यद्यपि एक जीव भी लोक का असंख्यातवाँ भाग स्थान रोकता है, फिर भी जीव दो प्रकार के हैं-अतः सभी जीव लोकाकाश में ही अवस्थित है । बादर और सूक्ष्म के भेद से जीव दो प्रकार के हैं। उनमें जो सूक्ष्म जीव हैं, वे सूक्ष्म रूप से परिणत हो रहे हैं। अत: शरीर-सहित होने पर भी बे परस्पर में बादर-जीवों के द्वारा घात को प्राप्त नहीं होते। इसलिये अप्रतिघात-बाधारहित शरीर वाले हैं । बादर जीव ही ब्राधासहित शरीर वाले हैं । इसलिये जहाँ पर एक सूक्ष्म निगोदिया जीव रहता है, वहीं पर साधारण शरीर को धारण करने वाले अनंतानंत जीव रह जाते हैं । गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में कहा भी है ___ "एक निगोद शरीर में द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा सिद्ध राशि से अनंतगुणे और अतीत समयों से अनंतगुणे जीव रहते हैं।" बादर जीवों के शरीर में और मनुष्यों के शरीर में पसीने से उत्पन्न होने वाले सम्मूर्छन आदि बहुत से जीव रह जाते हैं । इसलिए छोटी जगह में बहुत से जीवों के रहने का कोई विरोध नहीं है। १. गोम्मटसार, जीयकाण्ड, गाथा १९५
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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