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________________ नियमसार-प्राभृतम् ११३ अर्हदागमप्रामाण्यात् ॥१५॥ युगपत् सकलपदार्थत्वावभासज्ञानातिशयेनार्हता आविष्कृत आगमः गणधरेरनुस्मृतवचनरचनः श्रुताख्यः, समिष्यप्रशिष्यप्रज्ञावीविपरंपरा समुपनीतोऽस्मि । तस्य प्रामाण्याद्धर्मादीनां क्षेत्र प्रदेशाः मुख्याः इत्येत व म्युपगन्तव्यम् । तद्यथा-- एकैकस्मिन्नात्मप्रदेशे अनन्तानन्ता ज्ञानावरणादिकर्म प्रदेश: अवतिष्ठन्ते, एकैकस्मिन् कर्मप्रदेशे अनंतानंता औदारिकादिशरीरप्रदेशाः, एकैकस्मिन् वशरीरप्रदेशे अनंतानंतर यंत्र सोपचयप्रदेशाः क्लिन्नगुडरे वाद्युपचयवदवतिष्ठन्ते तथा धर्मादिदेशेष्वपि । चि स्थितास्थितवचनात् ॥१६॥ तत्र " सर्वकालं जीवामध्यप्रदेशा निरपवादाः सर्वजीवानां स्थिता एव केवलिनामपि अयोगिनां सिद्धानां च सर्वे प्रवेशाः स्थिता एवं व्यायामदुः खपरितापोब्रेकपरिणतानां जीवानां यथोक्ताष्टमध्यप्रदेश नितानाम् इतरे (ता इतरे) प्रदेशा अ स्थिता एव, शेषाणां प्राणिनां स्थितास्थास्थिताश्च - इति वचनान्मुख्या एव प्रवेशाः ॥" तदेव का आगम प्रमाण है । युगपत् संपूर्ण पदार्थों को जानने वाले ज्ञान के अतिशय से सहित अहंत भगवान् से यह आगम देव ने उसको स्मरण कर वचनों में निबद्ध किया है. आगम उनके शिष्य - प्रशिष्यों की बुद्धिरूपी लहरों की उस आगम की प्रमाणता होने से धर्म आदि द्रव्धों में प्रकार यह स्वीकार करना चाहिये । प्रगट हुआ है । गणधरऐसा यह 'श्रुत' नाम का परंपरा से आया हुआ है । क्षेत्र प्रदेश मुख्य हैं, इस उसी का विस्तार यह है कि एक-एक आत्मा के प्रदेश पर अनंतानंत ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रदेश ठहरे हुये हैं । एक- एक कर्म- प्रदेश पर अनंतानंत औदारिक शरीर के प्रदेश हैं और एक-एक शरीर प्रदेश पर अनंतानंत विस्रसोपय प्रदेश, गीले गुड़ में लगी हुई धूलि के समूह के सदृश ठहरे हुये हैं । वैसे ही धर्मादि प्रदेशों में भी मुख्य प्रदेश व्यवस्था है । दूसरी बात यह है कि ये प्रदेश स्थित और अस्थित अर्थात् अचल और चल दोनों तरह के हैं । सभी काल में जोव के मध्य के आठ प्रदेश सभी जीवों के निरपवादरूप से अचल ही हैं । केवली भगवान्, अयोगकेवली और सिद्धों के सभी प्रदेश अचल ही हैं 1 आयाम, दुःख, परिताप, उद्रेक से परिणत हुये जीवों के मध्य के आठ प्रदेशों से अतिरिक्त सारे प्रदेश चल ही हैं। शेष प्राणियों की आत्मा के प्रदेश चल-अचल १. तत्त्वार्थचात्तिक, अ० ५ सूत्र ८, पृ० ४५१ । १५
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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